बुधवार, 22 अप्रैल 2020

जय छिन्नमस्तिके

राँची से लगभग चालीस किलो मीटर दूर भैरवी और दामोदर नदी के संगम पर स्थित है छिन्नमस्तिका शक्ति पीठ। हम सुबह लगभग 10 बजे निकले थे। एक घंटे का सफर रांची नगर छोड़ने के बाद सड़कें थोड़ी संकरी हो जाती हैं । जीवन थोड़ा और शिथिल और शांत दिखता है । आदिवासी युवा मुख्य धारा की ओर बढ़ चले हैं । सिधु कानू और विरसा मुंडा की विरासत संजोए ये धरती आकर्षित करती है । लाल पलाश के फूलों को देखते हुए एक गीत मन मे गूंजता है "जब जब मेरे घर आना तुम फूल पलाश के ले आना " कबीर भी याद आते हैं "दिन दस फूला फूल के खंखड़ भया पलाश  " और साथ ही प्रेमचंद की पंक्ति जो उन्होंने गोदान में धनिया के लिए कही थी  जो अब पूरी तरह याद नही पर भाव यह था कि ग्रामीण सौंदर्य अभाव में जल्दी ही मुरझा जाता है ।आदिवासी स्त्रियों को देखते हुए पलाश और धनियां से तुलना करने लगता हूँ । पिछली बार राँची आते समय ट्रेन में जब सुबह  नींद खुली और खिड़की से देखा तो पलाश के लाल रंग जैसे पूरी धरती को लाल करते दिख रहे थे आसमान में सुबह का लाल सूरज लालिमा बिखरा रहा था । सब कुछ इतना मनमोहक था की मैं सम्मोहित सा अपनी बर्थ से उठ कर गेट पर आ गया और दरवाजा खोल कर बहुत देर तक निःशब्द उस लालिमा को मन के कैनवास पर समेटने की कोशिश करता रहा था । बाद में एक बार ठाकुर से कहा था कि लाल पलाश के फूल और वन की खूबसूरती मुझे हमेशा आकर्षित करती है । जवाब में उसने कहा था तुम्हारा पेट भर हुआ है इसलिए वन नदी नाले पहाड़ फूल पत्ती सब तुम्हे खूबसूरत लगेंगे । उस से पूछो जिसके लिए सबसे खूब सूरत उसकी थाली में भात है ।

"कुछ खायेगा "  उमेश पूछता है
"खा लो "
और हम एक गुमठी के आगे गाड़ी रोक लेते हैं । दुकानदार चाय बना रहा है आलू चॉप और पकौड़ी रखे हुए हैं ।
 "दो चाय बना दो "
"स्पेशल बना दें बाबू "
"बनाओ "
चाय बनने लगती है । आलूचोप हमेशा ही अच्छा लगा है इस इलाके का । जब आप गर्म गर्म आलू चोप को फोड़ते हैं तो उसके अंदर की गर्म भाप जिसमे चोप के आलू के मसाले में लहसुन की गंध स्वदेन्द्रियों को और ज्यादा उत्तेजित कर देती है ।
चाय और चॉप खाने के बाद हम आगे बढ़ चले । ज्यादा दूर नही था वहां से थोड़ी देर बाद पहुंच गए । काफी दूर से प्रसाद और फूल  खरीदने के लिए दुकानदार आवाजें लगाते हैं ।हमने कर किनारे लगाई जूता चप्पल उसी में रखे और फूल प्रसाद की डलिया ले कर दर्शन के लिए बढ़े ।लंबी लाइन थी। देख कर लगा कम से कम दो घंटे कतार में लग्न पड़ेगा देवी दर्शन को ।
"लाइन लंबी है" मैने कहा
"देखते हैं कोई जुगाड़" उमेश ने कहा और अपना कार्ड सामने बैठे पुलिस के दारोगा को दिखाते हुए कुछ समझाया ।
 भारत मे अगर आप सरकारी तंत्र में ऊपर के पायदान में कहीं हैं तो काम जल्दी हो जाता है । हमारा भी हो गया लाइन तोड़ कर आगे बढ़ जाने की अनुमति तो नही मिली पर  हमे लाइन छोड़ देने को कहा गया । मंदिर के एक दूसरे गेट जिधर बलि दी जाती है कि तरफ से प्रवेश मिल गया रक्त से भरा हुआ फर्श नासापुटों में बलि पशुओं के रक्त की गंध भर गई थी । वे बकरे जो इस पवित्र कार्य के लिए लाए जाते हैं शायद अपनी बलि दिए जाने से कुछ क्षणों पूर्व अपनी नियति अवश्य जान जाते हैं । मुझे उनकी तरफ देखने ।के डर लगता है । मंदिर का वह पुजारी जो बलि देने के कार्य मे लगा हुआ है भाव शून्य चेहरे के साथ अपने कार्य मे लगा हुआहै । बकरे का सिर पुजारी का है और धड़ यजमान का । बलि की वेदी में जब पशु की गर्दन फसाई जाती है और उसकी टाँगों को पीछे की तरफ खींचा जाता है उस से धर्म का कोई लेना देना नही है बल्कि विशुद्ध अर्थशास्त्र है इस तरह खिंचने से पशु की गर्दन पूरी लंबाई केसाथ खिंच जाती है और अपने कार्य मे कुशल बलि कर्ता बिल्कुल किनारे से धड़ से अलग करता है । संध्या समय मंदिर बंद होने से पहले कटे हुए सिरों को माँस व्यापारियों को बिकना भी तो है । धर्म का अपना अर्थशास्त्र भी होता है, अपना बाजार होता है बलि के बाद पशु को देवी का प्रसाद के तौर पर ग्रहण किया जाता है । आस पास बहुत सी ऐसी दुकाने बन गयी हैं कि जब आप यहां मनौती पूरी होने के बाद परिवार और कुटुम्बियों के साथ खस्सी की रस्सी हाथ मे पकड़ कर गीत गाते हुए आएं और बलि  के बाद प्रसाद यानी खस्सी को पकाने और भात पकाने की जिम्मेदारी दे सकते हैं जिसके लिए आपसे कुछ शुल्क लिया जाएगा और जब तक आप कुटुम्बियों के साथ नदी में स्नान करेंगे मेला घूमेंगे तब तक भोजन तैयार मिलेगा । आप धर्म यात्रा का पुण्य भी कमाएंगे और वन भोज का आनंद भी लेंगे ।

मंदिर में देवी की प्रतिमा है ।श्रद्धा के साथ दर्शन करता हूँ ।देवीकी प्रतिमा दर्शाती है कि देवी कमल पर आलिंगनबद्ध कामदेव और रति के ऊपर खड़ी हैं उनके एक हाथ मे खड्ग है और दूसरे में उनका स्वयं का कटा हुआ सिर जिसे उन्होंने स्वयं अपने खड्ग से काट है ।देवी के धड़ से रक्त की 3 धाराएं निकल रही है जिनमे एक धारा का पान देवी स्वयं कर रही है तथा बाकी की दो धाराओं के पान उनकी सहयोगी वारुणी और डाकिनी ।
छिन्नमस्तिका को समर्पित यह शक्ति पीठ तांत्रिक रहस्यों की  साधना का प्रमुख स्थल रहा है । मुझे लगता है
देवी छिन्नमस्तिका की  प्रतिमा सांकेतिक भाषा मे संसार के रहस्यों से संबंधित ज्ञान का ही श्रोत है । कामदेव और रति वासना का प्रतीक हो सकते हैं खड्ग ज्ञान का और कटा हुआ मस्तक अभिमान की समाप्ति या आत्मा या श्रेष्ठ को देहवाद की जकड़न से मुक्त करने का एक इशारा भी हो सकता है । यह इस बात का भी संकेत हो सकता है कि वासनाओं और त्याग के समन्वय के  बीच ही जीवन और जगत का संतुलन है ,, यह भी हो सकता है कि यह संसार के जीवन चक्र जन्म और मृत्यु और उसके दो किनारो को दर्शा रहे हों। यह भी हो सकता है कि यह बता रहे हों कि वासना निम्न ताल है और मोक्ष या देह से मुक्ति ऊपरी किनारा , रक्त की तीन धाराएं सत रज तम का प्रतीक हो सकती है ।और भैरवी और दामोदर का यह संगम प्रतीक हो सकता है पुरुष और प्रकृति के संगम का प्रतीक भी
हालांकि यह सब बहुत कुछ उथला चिंतन है
में नही जानता किस रहस्य को उकेरा गया है प्रतिमा में पर इतना अवश्य जनता हूँ कि जीवन और जगत के रहस्यों को उद्घाटित करने का एक दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रयास है ।संकेतों की भाषा मे ऐसा बहुत कुछ कहा गया है जो जानने योग्य है ।भारत विश्वगुरु रहा है ,दोबारा बन सकता है पर प्रयास यह जानने के करने होंगे इन मूर्ति शिलाओं और दक्षिण तथा वाम मार्गी सिद्धांतों की पुस्तकों एवं परम्पराओं में बिखरे ज्ञान को समेटने के ।बहुत कुछ नष्ट हो चुका है , और बहुत कुछ को हम थोथी और उधार की आधुनिकता के आकर्षण में नष्ट होते रोज पा रहे हैं ।
हो सकता है ज्ञान को मूर्तियों में भी संग्रहित किया गया हो । उसे शायद हम कभी जान पाएं ।क्योंकि इस दुनिया मे कोई भी चीज यूँ ही नही होती ।यह अलग बात है हम उसे समझ न पा रहे हों ।