शनिवार, 5 अप्रैल 2014

भारतीय भाषाएँ और अंग्रेजी

           आज एक सज्जन घर आए। बातों बातों में उन्होंने बताया कि वे १९७८ में वे धर्म प्रचारक बनना चाहते थे। जिसके लिए वे एक संस्था से   जुड़ कर युवा सन्यासी बन धर्म प्रचार का इरादा रखते थे।  हिंदी और संस्कृत के विद्वान थे। उनका साक्षात्कार हुआ और इस कार्य को करने के लिए वो इस लिए अनुपयुक्त करार दिए गए क्युकी उन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नही था।  उन्हें उस संस्था ने पूरे सम्मान के साथ यह कह कर विदा कर दिया कि छोटी सी हिंदी पट्टी के अतिरिक्त उन्हें अन्य अहिन्दी भाषी प्रदेशों में काम करना पड़ेगा जहाँ अंग्रेजी संपर्क भाषा होगी और उन क्षेत्रों में काम वो नहीं कर पाएंगे। 

        इस में तर्क वितर्क कई हो सकते हैं पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या किसी भारतीय भाषा में वह क्षमता नही थी जो सम्पूर्ण भारत कि संपर्क भाषा होती। बात हिंदी कि नहीं है बात भारतीयता की है।  क्या हम अपने विचारों को अपने भारतीय समाज में अभिव्यक्त करने के लिए एक विदेशी भाषा पर निर्भर रहेंगे। 

          जितने चाव से हम अंग्रेजी सीखने को तत्पर रहते है क्या उतनी तत्परता हमें तमिल तेलगू। उड़िया मलयालम और बंगला सीखने के लिए नही दिखानी चाहिए थी। 

          भारतीय शाशन प्रणाली चाहे वो अंग्रेज़ो द्वारा संचालित रही हो या उनके उत्तराधिकारियों द्वारा उसने हमेशा आपस में फूट दाल कर शाशन करने की अपनी पुराणी परम्परा को हमेशा बनाये रखा और भारतीय भाषाओँ को आपस में सदभाव उत्पन्न करने के स्थान पर विभेद उत्पन्न करने वाली ही बनाये रखा।  हम हिंदी  पट्टी वालों के लिए दक्षिण भारत की भाषाएं भले एक हों पर मलयालम बोलने वाला कन्नड़ बोलने वाले से और तमिल बोलने वाला तेलगु बोलने वाले से वैसा ही दुराव रखता है जैसे हिंदी बोलने वालों से। 


          भारत एक लम्बे अर्से तक ग़ुलाम रहा है. और शायद ग़ुलामी कहीं  गहराई तक घर कर गयी है हम में। और शायद यही कारन है कि हम अब तक प्रभुओं कि तरह उठना बैठना चलना   फिरना उनकी तरह कपडे पहनना और उन्ही कि तरह बोलना भी चाहते हैं और हद तो यह है कि उन्ही कि भाषा में भी.

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