मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

विसंगतियों पर प्रहार करती व्यंग्यस्ते : राम जनम सिंह


सुमित प्रताप सिंह का हाल ही में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह “व्यंग्यस्ते” देश समाज और अपने आस पास के परिवेश की  विसंगतियों  की गहन पड़ताल करते हुए उन पर करारा व्यंग्य करता है। इस पुस्तक में सुमित ने ४२ पत्र लिखे हैं।  गुटखा से  लेकर लोकतंत्र तक सभी को  सम्बोधित किया है उन्होंने अपनी पत्रों में.  कुछ पत्र राजनीति को बेपर्दा करते हैं तो कुछ समाज को और इन सबके बीच एक गहरी पीड़ा से गुजरता हुआ मुस्कुराता चला जाता है एक आदमी।
    छोटी और बड़ी सभी विसंगतियां बेहद चुटीला सम्बोधन पाती  हैं। ज्यादा कुछ छूटा नही  है रचनाकार की पैनी निगाहों से। सुमित के सम्बोधनों में एक गहरा व्यंग्य है और व्यंग्य भी ऐसा की होठों पर मुस्कराहट भी आती है और विसंगतियों से उपजे दर्द की एक गहरी लकीर भी हृदय को बेध डालती है। अपने पहले ही पत्र में  लोकतंत्र को सम्बोधित करते हुए वो कहते हैं 'प्यारे लोकतंत्र महाराज’  ‘सादर  राजतन्त्रस्ते’ लोकतंत्र कितना प्यारा हो सकता था एक आम भारतीय के लिए जो उसे महाराज बनाने का वादा  करके आया था, परन्तु सुमित अपने सम्बोधन में ही स्पष्ट कर देते है कि ये असल में राजतंत्र है जो लोकतंत्र का खोल पहने हुए है।  इसे आगे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि पुराने राजाओं और नवाबों ने नया चोला धारण किया और वे राजनीती में आ गए और सत्ता सुख भोगने की अपनी परंपरा जारी  रखी।इसी तरह  राष्ट्रगीत वंदे मातरम  के अपमान पर भी लेखक का दुखी मन यह जानता है कि  वन्दे मातरम के अपमान के पीछे धर्म नहीं कुत्सित राजनीति है।वो इस पत्र में लिखते हैं  ''उसे उसके धर्म में अंग्रेजी सम्राट की स्तुति में बने गीत को गाना जायज है पर मातृ भूमि के प्रति सम्मान प्रकट करना हराम लगता है।“
     आज उदारवाद या उधारवाद के दौर में जब राजनीति महज  पद  प्रतिष्ठा और पैसे को प्राप्त करने का एक धंधा बन गयी है। तथाकथित नेता गण जब घोटालों में आकंठ डूबे हों तो ऐसे नेता का अभिवादन "सादर घोटालास्ते" कितना प्रामाणिक हो जाता है। परिवेश के प्रति  इस सजग रचनाकार की निगाहों से भलाकैसे बच सकती है ये   नेतागीरी? भारत की राजनीति कितनी अवसरवादी और निर्बल है। देशद्रोह को भी वोट में बदल पाने का लालच अक्सर कतराता है एक देश द्रोही को सजा देने के लिए इसका ब्यौरा सुमित “आतंकी का जिहादियों के नाम पत्र” में देते हैं। "हिंदुस्तान पर हमले के दौरान पकडे भी गए तो भी सुभानल्लाह मजे ही मजे। यहाँ की जेलों में जमकर ऐश करोगे।  दस-पंद्रह साल तो मुक़दमे में ही लग जाएंगे और सजा हुई भी तो अगले दस पंद्रह साल इस सोच विचार में की सजा की तामील की जाए या नहीं। वोट बैंक की राजनीति ने इस कदर निकम्मा और विचार शून्य बना दिया है, कि सत्ता सुख की चाह में तथाकथित नेतागण "जरूरत पड़ने पर ये अपनी माँ, बहन, बेटी और बहू को भी बेचने को तैयार रहते हैं।" हिंदुस्तान की इनके लिए कोई अहमियत   नहीं।  ऐसे दौर में भारत में मजे मारता हुआ एक आतंकी बड़ी समझदारी से ये कहता है की भला हो इस वोट बैंक की नीति का जो हम सब इतने कुकर्म करके भी खा-पीकर मुस्टंडे हो रहे हैं। हालाँकि लेखक इन जिहादियों की मनोदशा और इनके जिहाद की निरर्थकता का विवरण ओसामा का ओबामा के नाम पत्र में देते हुए कहता है, "मुझे बताया गया था कि यदि जिहाद करते हुए मारे जाओ तो शहीद का  मिलता है और जन्नत नसीब होती है, पर मुझे दोजख में ऐसे अनेक मूर्ख मिले, जो जन्नत के लालच में जिहाद करते हुए मारे गए थे। अल्लाह ने  दुनिया को इतने जतन  और प्यार से बनाया, उसमें रहने के लिए इंसान और दूसरे जीव बनाये क्या वह कभी चाहेगा कि उसके बच्चे आपस में लड़कर खून बहायें?"
     भारत कथित रूप से एक कृषि प्रधान देश है पर किसानों की दयनीय दशा पर भारतीय सत्ता निर्दयतापूर्वक अनभिज्ञ बने रहने का अंतहीन ढोंग किये बैठी है। हर वर्ष किसानों के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा होती है परंतु तंत्र की नाकामी के कारण उसका फायदा किसानों को न मिलकर बिचौलियों को मिलता है। फसल बोने के लिए  ऋण से लेकर मंडी में फसल की बिक्री तक की किसान की सारी बेबसी और दयनीयता का ब्यौरा लेखक किसानो का प्रधानमंत्री के नाम पत्र में प्रदर्शित करता है और उम्मीद करता है कि प्रधानमंत्री जी की आँखों से इस कुतंत्र के प्रति अनभिज्ञता का पर्दा हट सके। इसी क्रम में सुमित का एक और पत्र जो भारतीय किसान के नाम है साक्षात्कार कराता है भारतीय किसान की लाचारी का। किसान और उसके कर्जे का अंतहीन क्रम अनवरत चल रहा है और तंगहाल, भूखा व क़र्ज़ की मार से दबा और तंत्र के जटिल बंधनों में छटपटाता किसान आत्महत्याएं करने को विवश है।  और अगला ही खत इस दुर्दशा के कारणों की तह में जाने की कोशिश करता है जो भ्रष्टाचार बाबा के नाम है जहाँ वे आदि-अनादि काल से चले आ रहे भ्रष्टाचार जो आज इतना प्राचीन हो चुका है कि उसे पितामह कहकर सम्बोधित करना पड़ता है।
    भारतीय किसान की तरह ही भारत के गाँव भी दुर्दशा का शिकार हो रहे हैं। नगरों और महानगरों की आर्थिक प्रगति उतनी तेजी से गाँवों में नहीं आई जितनी तेजी से वातावरण को प्रदूषित करने वाला काला धुआँजुआ और शराब ने अपने पाँव जमाये। दूधदही और शुद्ध हवा ने गाँव से दूरियां बनाना आरंभ कर दिया और नशा अपने साथ लेकर आया। अकर्मण्यता, बेरोजगारी, गरीबी और अपराध जिसने गाँव और गाँव वालों की जड़ें हिलाकर रख दीं और अंदर से पूरी तरह खोखला कर दिया।नशे का ये चलन और उससे होने वाले  सामाजिक, राजनैतिक और  सांस्कृतिक  क्षरण को सुमित रेखांकित करते हैं “एक पत्र मदिरा रानी के नाम” नामक पत्र में। वे बताते हैं कि शराब किस तरह बरगला देती है वोटर को एक अच्छा प्रत्याशी चुनने से।  ऐसा ही एक और पत्र है पब प्रेमी बाला  के नाम जहाँ शराब और उन्मुक्त यौन प्रदर्शन संस्कृति का पर्याय बनता जा रहा है।
     “लंकाधीश रावण के नाम पत्र में” सुमित रेखांकित करते हैं कि हर वर्ष दशहरा पर रावण दहन होता है पर रावण नष्ट होने की जगह और शक्तिशाली तथा ज्यादा छली बनकर हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। तुलना करते हुये समाज में मौजूद आधुनिक रावणों से तुलना करते हुये लेखक रावण से कहता है "आप बली थे और कुछ कुछ छली थे, किन्तु आज के रावण निर्बली हैं और १००% छली  हैं। आपने सीता जी का हरण तो किया पर उसके सतीत्व पर कोई आघात नहीं किया, किन्तु आज के रावण तो अपने घरों की बहू-बेटियों को भी नहीं छोड़ते। समाज में नारी की अस्मिता इन रावणों के डर से थर-थर काँप रही है।“ नारियों के सम्मान पर ही चिंतित होते हुये    दामिनी के नाम पत्र”  में लेखक का व्यथित मन कहता है कि नारियों को देवी का दर्ज देकर पूजने वाले भारत देश ऐसे दरिंदों को अब तक जीने का अधिकार क्यों है?
    कुछ हलके-फुल्के अंदाज में गुदगुदाने वाले हास्य से सराबोर व्यंग्यात्मक पत्र भी हैं जैसे “सर्दी के नाम पत्र”, “मच्छर के नाम पत्र” “ज्योतिषी दद्दा के नाम पत्र” तथा अतिथि महाराज के नाम पत्र।” इन पत्रों को पढ़कर आप खिलखिलाये बिना नहीं राह पायेंगे।  पर संग्रह के अधिकांश पत्र व्यवस्था तंत्र की विसंगतियों पर करारा व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं।  
    सुमित एक कुशल चितेरे  की तरह समाज, देश, राजनीति और संस्कृति की विसंगतियों के चित्र  उकेरते हैं।  परन्तु वे उन चित्रों में एक रंग और भरते हैं और वह रंग   है उम्मीद अथवा आशा का रंग। सुमित के पत्रों की शुरुआत  जहां निराशा के माहौल में होती वहीं पत्र का अंत आते-आते उसमें सुधार की उम्मीद भी जागने लगती है।
    लोकतंत्र के नाम पत्र में जहाँ वे लोकतंत्र के राजतंत्र बन जाने के खतरे की बात करते हैं वहीँ लोकतंत्र को वापस प्रतिष्ठित करने के लिए वो वोट की ताक़त की भी बात करते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों को दुत्कारते हुए वे कहते हैं की पहले तो पप्पू बनकर वोट डालने का कष्ट नहीं उठाते और जब सरकारी नीतियों से उन्हें परेशानी होती है तो विद्वान बनने का ढोंग करके राजनीति के गन्दा होने को कोसते लगते हैं। “दामिनी के नाम पत्र” में वे कहते हैं उस युवा वर्ग ने जिसे अब तक धूम-धड़ाका मस्ती कर जीवन जीने का ही पर्याय माना जाता   था, राजपथ पर एकत्र हो उसे लोकपथ बना दिया और सत्ता को सीधी चुनौती दे डाली। 
    सुमित की ये पुस्तक चुटीले सम्बोधनों के माध्यम से तीखा व्यंग्य करते हुये समाज में उपस्थित विसंगतियों पर कठोर प्रहार करती है।  और उम्मीद यह उम्मीद जगाती है कि अव्यवस्था का ये दौर कभी न कभी तो ख़त्म होकर रहेगा।  

राम जनम सिंह
 २५२, गाड़ी पुरा, इटावा 

रविवार, 6 अप्रैल 2014

mera bagicha

           कुछ पौधे लगे हैं मेरे छोटे से गमलों वाले बगीचे में ,,तुलसी ,गुलाब, गुड़हल , कनेर।  कुछ के मैं नाम नही जानता    पर हैं वे भी बेहद खूबसूरत और सुगंध प्रदान करने वाले।  बड़ी मेहनत  और लगन से  ले कर आया था मैं गमलों को और उन में लगे फूलों को।  ज्यादा जगह नही  है घर में  तो एक छोटा सा हिस्सा जंगले के बगल से ले लिया था मैंने।  सारे  पौधे जंगले के किनारे लगे जंगले से आने वाली हवा से झूमते रहते और खुश्बू बिखेरते रहते। गुड़हल का पौधा थोडा बड़ा हो गया और जंगले से उचक उचक कर बाहर  की  दुनिया देखने कि कोशिस करता रहता।  फिर एक बेल उग आयी।  हरे हरे चिकने पत्ते।  उस बेल ने गुड़हल के पौधे से  लिपटना शुरू किया और फिर  एक पौधे से दुसरे पौधे होते हुए उसने जंगले को भी खुद मेंलपेटना  शुरू कर दिया।  अब जंगले के बाहर  से सिर्फ वो हरे पत्ते वाली बेल ही दिखती है ,और बाकि पौधे खुली हवा में सांस लेने को भी छटपटाते हैं। आज तय किया है मैंने इस रीढ़ रहित बेल को बेशक वो खूबसूरत ही सही मैं अपने जंगले वाले छोटे से बगीचे से काट कर अलग कर ही दूंगा।  फेकुंगा नही। उसे भी एक छोटे से गमले में लगाऊंगा और कोसिस करूँगा कि मेरे बगीचे के पौधों का सहारा लेकर उठे तो पर मेरे गुड़हल, कनेर , गुलाब और तुलसी को भी जंगले से आने वाली ताज़ी हवा मिलती रहे और उन्हें भी बहार की दुनिया देखते रहने का मौका।  और बेल का क्या ? वो तो  फिर किसी न किसी का सहारा लेकर बढ़ेगी ही बढ़ना ही चाहेगी और फिर काटना पड़ेगा ससुरी को 

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

भारतीय भाषाएँ और अंग्रेजी

           आज एक सज्जन घर आए। बातों बातों में उन्होंने बताया कि वे १९७८ में वे धर्म प्रचारक बनना चाहते थे। जिसके लिए वे एक संस्था से   जुड़ कर युवा सन्यासी बन धर्म प्रचार का इरादा रखते थे।  हिंदी और संस्कृत के विद्वान थे। उनका साक्षात्कार हुआ और इस कार्य को करने के लिए वो इस लिए अनुपयुक्त करार दिए गए क्युकी उन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नही था।  उन्हें उस संस्था ने पूरे सम्मान के साथ यह कह कर विदा कर दिया कि छोटी सी हिंदी पट्टी के अतिरिक्त उन्हें अन्य अहिन्दी भाषी प्रदेशों में काम करना पड़ेगा जहाँ अंग्रेजी संपर्क भाषा होगी और उन क्षेत्रों में काम वो नहीं कर पाएंगे। 

        इस में तर्क वितर्क कई हो सकते हैं पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या किसी भारतीय भाषा में वह क्षमता नही थी जो सम्पूर्ण भारत कि संपर्क भाषा होती। बात हिंदी कि नहीं है बात भारतीयता की है।  क्या हम अपने विचारों को अपने भारतीय समाज में अभिव्यक्त करने के लिए एक विदेशी भाषा पर निर्भर रहेंगे। 

          जितने चाव से हम अंग्रेजी सीखने को तत्पर रहते है क्या उतनी तत्परता हमें तमिल तेलगू। उड़िया मलयालम और बंगला सीखने के लिए नही दिखानी चाहिए थी। 

          भारतीय शाशन प्रणाली चाहे वो अंग्रेज़ो द्वारा संचालित रही हो या उनके उत्तराधिकारियों द्वारा उसने हमेशा आपस में फूट दाल कर शाशन करने की अपनी पुराणी परम्परा को हमेशा बनाये रखा और भारतीय भाषाओँ को आपस में सदभाव उत्पन्न करने के स्थान पर विभेद उत्पन्न करने वाली ही बनाये रखा।  हम हिंदी  पट्टी वालों के लिए दक्षिण भारत की भाषाएं भले एक हों पर मलयालम बोलने वाला कन्नड़ बोलने वाले से और तमिल बोलने वाला तेलगु बोलने वाले से वैसा ही दुराव रखता है जैसे हिंदी बोलने वालों से। 


          भारत एक लम्बे अर्से तक ग़ुलाम रहा है. और शायद ग़ुलामी कहीं  गहराई तक घर कर गयी है हम में। और शायद यही कारन है कि हम अब तक प्रभुओं कि तरह उठना बैठना चलना   फिरना उनकी तरह कपडे पहनना और उन्ही कि तरह बोलना भी चाहते हैं और हद तो यह है कि उन्ही कि भाषा में भी.