शनिवार, 16 नवंबर 2013

भारत प्राचीन काल से  सम्पूर्ण विश्व को अच्छी शिक्षा उपलब्ध  कराने वाला देश रहा है।  तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला से लेकर मठो मंदिरो कि एक लम्बी श्रंखला है जहाँ  अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध थी।
और देश विदेश से तमाम शिक्षार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण   करने   आते रहे हैं। भारत के सभी शाशको ने शिक्षा को सम्मान का स्थान दिया। ग़ुलामी के लम्बे कालखंड को झेलने के बाद जब भारत आज़ाद हुआ तो संविधान में समाज के सभी वर्गों को बिना किसी भेद भाव के सभी को सामान अवसर उपलब्ध करते हुए शिक्षा प्राप्त करने कि व्यवस्था कि गयी।
              आज़ादी के ६६ सालों के बाद जब हैम भारत में  शिक्षा व्यवस्था पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि इस क्षेत्र में सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन कुछ इस तरह हुआ है कि हर वर्ग के लिए अलग तरह कि शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है। अमीर आदमी के बच्चों के लिए अलग विद्यालय हैं और गरीब बच्चों के लिए अलग। न इनमे किताबों कि एक रूपता है और न ही इन विद्यालयों कि सुविधाओं में कोई मेल  .
एक तरफ जहाँ' स्मार्ट  क्लास्सेस 'का प्रचलन पुराना पड़  गया है वहीँ दूसरी तरफ टाट पर बैठे सर्दियों में कांपते हुए बच्चे हैं। और मालूम पड़ता है कि भारत कि शिक्षा व्यवस्था को पूंजीवादी बाज़ार व्यवस्था के हाथों में सौंप दिया गया है। शिक्षा और शिक्षा से सम्बंधित नीतियां पूरी तरह से बाज़ार के मुनाफे को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं.
मेरे  कुछ मित्र कहते हैं कि सरकार ने सभी को अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार क़ानून बनाया है।
             भारत सरकार  ने शिक्षा का अधिकार क़ानून बनाया और व्यवस्था की   कि ६ से १४ वर्ष के बच्चे कोनिशुल्क  अनिवार्य और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराई जाए।  अब पहली बात तो ये कि यह शिक्षा निशुल्क है मुफ्त नहीं अर्थात शिक्षण शुल्क नहीं लिया जाएगा बाकी  का शुल्क जैसे शिक्षण प्रक्रिया में काम  आने वाली वे वस्तुए जिन्हे बच्चे प्रयोग में लायेंगे यथा  कलम कापी आदि ये व्यवस्था बच्चा स्वयं करेगा। सरकार  यूनिफार्म मुफ्त बाँट रही है पर उसकी कीमत वो रखी गयी है जिससे कहीं ज्यादा में वे लोग अपने लिए अंडरवियर खरीदते हैं जिन्होंने ये बजट बनाया है। ये सिर्फ कमीज और पतलून दे रहे हैं बाकि के जूते मोज़े ,बेल्ट टाई स्वेटर वगैरह कि व्यवस्था बालक को स्वयं करनी है.जो समाज का एक तबका जुटाने में स्वयं को सर्वथा अक्षम पाता है।
दूसरी तरफ कुछ बच्चे जिनके माता पिता आर्थिक रूप से समृद्ध हैं और महँगी फीस वाले किसी निजी स्कूल में ये बच्चे लक  दक यूनिफार्म और चमचमाते जूतों के साथ  प्रवेश करते हैं। . शिक्षा प्राप्त करने कि ये दो व्यवस्थाएं जहाँ एक तरफ कुछ बालको को अहंकारी दम्भी समाज से कटा हुआ बनती हैं वहीँ दूसरी तरफ कुछ बालको को हीन  भावना का शिकार बनती है और कुछ को समाज से विद्रोही।

दूसरी बात इस क़ानून कि ये है कियह क़ानून सिर्फ कक्षा ८ तक की पढाई कि अनिवार्यता कि बात करता है परन्तु आज के सन्दर्भ में इसे देखे तो कक्षा ८ की गुणवत्ता पूर्ण पढाई के बाद किसी भी गुणवत्ता पूर्ण व्यवसायिक कोर्स के दरवाजे नहीं खुलते न तो मेडिकल न ही इंजीनियरिंग और न ही प्रबंधन अब इस अनिवार्य गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का अर्थ ही क्या बचा।
                  क्या सरकारें सिर्फ अप्रशिक्षित अकुशल मजदूर ही बनाना  चाहती है समाज के वंचित वर्ग के बच्चों को
ये कैसी व्यवस्था है जहाँ धनवानो के बच्चे तरक्की कि सीढियाँ चढ़ते जाएं और गरीब किसान और मजदूरों के बच्चे एक गहरे षड़यंत्र के तहत सिर्फ अकुशल और खेतिहर मजदूर बन पाने के मकड़जाल से बाहर ही न  सकें।
     एक ही देश के बच्चे के लिए अलग अलग प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्थाये , अलग अलग पाठ्यक्रम ,,अलग अलग किताबें और अलग भाषाई व्यवस्था ,,,भारतीय संविधान को मुह चिढ़ाती नज़र आती हैं। और आवश्यकता नजर आती है एक जन आंदोलन कि जो शिक्षा कि इन विषमताओं को दूर कर सके तभी हम स्वयं को भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र के निवासी कहलाने में गर्व का अनुभव कर सकेंगे

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