सोमवार, 18 नवंबर 2013

स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में महादेवी वर्मा का साहित्य 






             महादेवी का साहित्य नारी के शोषण, उसकी पीड़ा ,,,उसके बंधन और इन सबका प्रतिकार करते हुए उसकी हिम्मत और उसकी वयक्तिक क्रांति का साहित्य है .
उनका साहित्य  'स्त्री जीवन पर एक नारी लेखिका की सहानुभूति मात्र नही वरन एक गंभीर विश्लेषण भी है'

महादेवी का स्त्री विमर्ष  उनकी कविता की अपेक्षा रेखा चित्रों, संस्मरणों और निबंधों में अधिक मिलता है. डॉ सूर्य प्रकाश दिक्षित के शब्दों में" नारी  जीवन और समसामयिक जीवन बोध विषयक उनका चिंतन  जब काव्य बद्ध  न हो सका तो उन्हें गद्य का आश्रय लेना पड़ा
  महादेवी का स्त्री विमर्श उनके आलेखों युद्ध और नारी ,,आधुनिक नारी,,घर और बहार,,,स्त्री के अर्थ स्वातंत्र्य का प्रश्न ,,,,उनके संस्मरणों रेखा चित्रों और कही कही कविताओं में दिखाई पड़ता है। 

        समाज स्त्री को ,,,उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को स्वीकार नही करना चाहता ,,,पुरुषवादी समाज ये मानता है की स्त्री का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नही उसकी कोई पुकार नही,,उसका कोई होना नही स्त्री की स्थिति एक गुलाम की तरह है जो सिर्फ पुरुह के पीछे पीछे चलती है
    स्त्री शोषण का यह जाल सदियों से चला आ रहा है पुरुष स्त्री सब कुछ थोपता रहा है चाहे नियम कानून हों ,,,या रीती रिवाज यहाँ तक की स्त्री को दिए गए अधिकार भी सब कुछ उस पर थोपा  ही गया है ..
महादेवी श्रंखला की कड़ियाँ में लिखती हैं  "आदिम युग से सभ्यता के विकास तक्स्त्री सुख के साधनों  में गिनी जाती रही .......पुरुष ने उसके अधिकार अपनी सुख की तुला पर तौले उसकी विशेषता पर नही

      महादेवी की रचनाओं के स्त्री पात्र समाज द्वारा उपेक्षित व तिरष्कृत हैं चाहे वो गुंगिया हो,,,भक्तिन हो बिबिया हो या मुन्नू की माई हो या चीनी फेरे वाले की अभागिनी बहन .... ये सभी सर्व हारा हैं इनके पास इनका अपना कहने को कुछ भी नही ....न धन संपत्ति न घरबार न रूप रंग का अभिमान न मत पिता यह तक की अपना नाम भी नही और समाज द्वारा पग पग पर ये छले जा रहे हैं पग पग पर इनका शोषण हो रहा है
    चाहे गुंगिया को उसके पिता पति व पुत्र के द्वारा छले जाना हो या बिबिया की जिजीविषा के दम तोड़ देने की कहानी भक्तिन की कथा हो या मुन्नू की मई की सब तरफ समाज का एक स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यव्हार ही दिखाई पड़ता है

     महादेवी का साहित्य " इस शोषक समाज में संवेदनशील व्यक्ति की तथा एक नारी की वेदना है ,,,,महादेवी के संस्मरणों में नारी की मूक पीड़ा को प्रखर अभिव्यक्ति मिली है उन्होंने नारी की वेदना उसकी उसकी आकुल छात्पताहत उसकी पराधीनता को शब्द बढ करते हुए उसकी गरिमा को रेखांकित किया है

       चीनी फेरीवाला  में वैश्या जीवन की त्रासदी के संकेत मिलते हैं इस जीवन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए वे लिखती हैं " यदि स्त्री की ओर देखा जाए तो देखने वाले का ह्रदय काँप उठेगा ....उसके ह्रदय में प्यास है परन्तु उसे भाग्य ने मृग मरीचिका में निर्वासित कर दिया है…उसे जिंदगी भर सौंदर्य की हट लगनी पड़ी ,, अपनी ह्रदय की समष्ट कोमल भावनाओं को कुचल कर आत्म समर्पण की साडी इच्छाओं को गला घोंट कर रूप का क्रय विक्रय करना पड़ा और परिणाम में उसके हाथ आया निराश हताश और एकाकी अंत
   नारी के सामने एक बहुत जटिल समस्या रही है आर्थिक स्वतंत्रता की और जब तक स्त्रियाँ अर्थी रूप से स्वतंत्र नहीं है ,,,जब तक उनकी कोई अर्थगत ,,सम्पत्तिगत स्थिति नहीं है तब तक स्त्रियों की समानता और उनके अधिकारों की बात सिर्फ निठाल्ला चिंतन ही है
     महादेवी लिखती हैं स्त्री के जीवन की अनेक विवशताओं में प्रधान और कदाचित उसे सबसे अधिक जड़ बनाने वाली अर्थ से सम्बन्ध रखती है और रखती रहेगी
              समाज ने स्त्री को घर के भीतर बंद कर दिया है उसे आर्थिक रूप से पंगु कर दिया है
महादेवी लिखती हैं पुरुष ने स्त्री को घर में प्रतिष्टित कर उसे जड़ता सिखाने का प्रयत्न किया है
उन का मानना  है " जिन स्त्रियों की पाप गाथाओं से समाज का जीवन कला है जिनकी लज्जा हीनता से जीवन लज्जित है नमे अधिकांस की दुर्दशा का कारण अर्थ की विषमता ही मिलेगी

  महादेवी  का साहित्य सिर्फ नारी वेदना का ही साहित्य नही , दुःख और करुणा  का ही साहित्य नही है  वे औरत की एक जगह समाज मेंबनाती  हैं ,,उस औरत की जो समाज में नितांत उपेक्षित है यह जगह करुनामय तो है पर करूँ नही दया की पात्र नहीं ,,निरीह नही

     महादेवी का साहित्य केवल करुन और दुःख का ही साहित्य नही है यह नारी क्रांति का भी साहित्य है यह सिर्फ विद्रोह भर नही है ,,,,विद्रोह सिर्फ पुराने व्यक्तित्व को  है और क्रांति है नए की सृष्टि 
    महादेवी की स्त्रियाँ स्वाभिमानी हैं और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी ,,,,उनके व्यक्तित्व में करुन और क्रांति गुंथी हुई है ,,,महादेवी  ने लिखा है "स्त्री के व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति
के साथ साहस तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य होना आवश्यक है  जिस से  ह्रदय के सहज स्नेह की वर्षा करते हुए हुए भी वह किसी अन्याय को प्रश्रय न दे कर अपने प्रतिकार में तत्पर रह सके

    बिबिया के स्वाभिमान पर जब चोट पड़ती है तब वह पति पर चिंता उठा कर फेक देती है और इस चिमटे के प्रहार का स्मरण ही रमई कोहिम्मत नहीं दे पता की वह बिबिया को जुए के दांव पर रख सके
     बी इबिया स्पष्ट घोसणा  करती है वह कोई गाय बछिया नही है की उसे कसाई  के हाथों बेंच दिया जाए या दान कर दिया जाए

मुन्नू की मई को हम समाज की रुढियों को तोड़ कर अपनी और अपने परिवार की रक्षा के लिए मजदूरी करते हुए पाते  हैं
भक्तिन समाज के किसी बहकावे में आने वाली नहीं है उसे अपने भले बुरे की पहचान है और वह अपनी बेहतरी के लिए प्रयास रत भी है
महादेवी के अनुसार ऐसे ही देशव्यापी आन्दोलन की जरुरत है जो सबको सजग कर दे
    महादेवी के स्त्री विमर्श की सबसे खास बात है की वह स्त्री और पुरुष को काट कर अलग नही करती और स्त्री स्वतंत्रता को सिर्फ दैहिक स्वतंत्रता तक ही सिमित नहीं करती ,,,,डॉ राजेंद्र गौतम के अनुसार ' महादेवी ने स्त्री के हक के लिए जो आवाज उठाई है उसमे दृढ़ता तो है ,,,जड़ संस्कारों पर चोट भी है  पर उनका स्त्री विमर्श पुरुष द्वेषी नहीं है ..उसमे ग्रीन का स्थान नहीं है ,,,उद्दाम भोग की मांग नहीं है अर्थात नारी की देहवादी परिभाषा उन्हें स्वीकार नहीं है

      महादेवी की नारी पुरुष होने की दौड़ में  नहीं है वह अपने व्यक्तित्व  की स्वीकृति चाहती है और यह स्वीकृति वह किसी से दान में नहीं चाहती बल्कि हासिल करना  चाहती है ,,,इसे हासिल करने की प्रक्रिया से गुजरना हहती है ,,,और इसमें जो संघर्ष है उससे वह पूरी आस्था और निष्ठां से संघर्षरत है
   महादेवी का नारी विमर्श एक नारा नही है यह नारी की समस्याओं से रूबरू होने उनसे जूझने और जूझते हुए समाधानों को निकलने के प्रयास की ओर संकेत करता है

महादेवी की नारी संघर्ष शील है ,,,वह अपनी पीड़ा दुःख और दमन से टूटी नहीं है वह इन सभी के बीच न सिर्फ पूरी जीवन्तता से जी रही है बल्कि इस शोषण और दमन से मुक्ति का मार्ग अपने दम पर ढूंढ रही है ---------------राम जनम 

शनिवार, 16 नवंबर 2013

भारत प्राचीन काल से  सम्पूर्ण विश्व को अच्छी शिक्षा उपलब्ध  कराने वाला देश रहा है।  तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला से लेकर मठो मंदिरो कि एक लम्बी श्रंखला है जहाँ  अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध थी।
और देश विदेश से तमाम शिक्षार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण   करने   आते रहे हैं। भारत के सभी शाशको ने शिक्षा को सम्मान का स्थान दिया। ग़ुलामी के लम्बे कालखंड को झेलने के बाद जब भारत आज़ाद हुआ तो संविधान में समाज के सभी वर्गों को बिना किसी भेद भाव के सभी को सामान अवसर उपलब्ध करते हुए शिक्षा प्राप्त करने कि व्यवस्था कि गयी।
              आज़ादी के ६६ सालों के बाद जब हैम भारत में  शिक्षा व्यवस्था पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि इस क्षेत्र में सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन कुछ इस तरह हुआ है कि हर वर्ग के लिए अलग तरह कि शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है। अमीर आदमी के बच्चों के लिए अलग विद्यालय हैं और गरीब बच्चों के लिए अलग। न इनमे किताबों कि एक रूपता है और न ही इन विद्यालयों कि सुविधाओं में कोई मेल  .
एक तरफ जहाँ' स्मार्ट  क्लास्सेस 'का प्रचलन पुराना पड़  गया है वहीँ दूसरी तरफ टाट पर बैठे सर्दियों में कांपते हुए बच्चे हैं। और मालूम पड़ता है कि भारत कि शिक्षा व्यवस्था को पूंजीवादी बाज़ार व्यवस्था के हाथों में सौंप दिया गया है। शिक्षा और शिक्षा से सम्बंधित नीतियां पूरी तरह से बाज़ार के मुनाफे को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं.
मेरे  कुछ मित्र कहते हैं कि सरकार ने सभी को अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार क़ानून बनाया है।
             भारत सरकार  ने शिक्षा का अधिकार क़ानून बनाया और व्यवस्था की   कि ६ से १४ वर्ष के बच्चे कोनिशुल्क  अनिवार्य और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराई जाए।  अब पहली बात तो ये कि यह शिक्षा निशुल्क है मुफ्त नहीं अर्थात शिक्षण शुल्क नहीं लिया जाएगा बाकी  का शुल्क जैसे शिक्षण प्रक्रिया में काम  आने वाली वे वस्तुए जिन्हे बच्चे प्रयोग में लायेंगे यथा  कलम कापी आदि ये व्यवस्था बच्चा स्वयं करेगा। सरकार  यूनिफार्म मुफ्त बाँट रही है पर उसकी कीमत वो रखी गयी है जिससे कहीं ज्यादा में वे लोग अपने लिए अंडरवियर खरीदते हैं जिन्होंने ये बजट बनाया है। ये सिर्फ कमीज और पतलून दे रहे हैं बाकि के जूते मोज़े ,बेल्ट टाई स्वेटर वगैरह कि व्यवस्था बालक को स्वयं करनी है.जो समाज का एक तबका जुटाने में स्वयं को सर्वथा अक्षम पाता है।
दूसरी तरफ कुछ बच्चे जिनके माता पिता आर्थिक रूप से समृद्ध हैं और महँगी फीस वाले किसी निजी स्कूल में ये बच्चे लक  दक यूनिफार्म और चमचमाते जूतों के साथ  प्रवेश करते हैं। . शिक्षा प्राप्त करने कि ये दो व्यवस्थाएं जहाँ एक तरफ कुछ बालको को अहंकारी दम्भी समाज से कटा हुआ बनती हैं वहीँ दूसरी तरफ कुछ बालको को हीन  भावना का शिकार बनती है और कुछ को समाज से विद्रोही।

दूसरी बात इस क़ानून कि ये है कियह क़ानून सिर्फ कक्षा ८ तक की पढाई कि अनिवार्यता कि बात करता है परन्तु आज के सन्दर्भ में इसे देखे तो कक्षा ८ की गुणवत्ता पूर्ण पढाई के बाद किसी भी गुणवत्ता पूर्ण व्यवसायिक कोर्स के दरवाजे नहीं खुलते न तो मेडिकल न ही इंजीनियरिंग और न ही प्रबंधन अब इस अनिवार्य गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का अर्थ ही क्या बचा।
                  क्या सरकारें सिर्फ अप्रशिक्षित अकुशल मजदूर ही बनाना  चाहती है समाज के वंचित वर्ग के बच्चों को
ये कैसी व्यवस्था है जहाँ धनवानो के बच्चे तरक्की कि सीढियाँ चढ़ते जाएं और गरीब किसान और मजदूरों के बच्चे एक गहरे षड़यंत्र के तहत सिर्फ अकुशल और खेतिहर मजदूर बन पाने के मकड़जाल से बाहर ही न  सकें।
     एक ही देश के बच्चे के लिए अलग अलग प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्थाये , अलग अलग पाठ्यक्रम ,,अलग अलग किताबें और अलग भाषाई व्यवस्था ,,,भारतीय संविधान को मुह चिढ़ाती नज़र आती हैं। और आवश्यकता नजर आती है एक जन आंदोलन कि जो शिक्षा कि इन विषमताओं को दूर कर सके तभी हम स्वयं को भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र के निवासी कहलाने में गर्व का अनुभव कर सकेंगे

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

है मेरा ख्वाब तेरे साथ एक शाम गुज़रे
 
यूँ तो कट ही रही है ज़िन्दगी
लेकिन है ख़ाली ख़ाली सी
 उदास सुबहें हैं मेरी ओ सुस्त शामें हैं
नहीं है फिक्र कोई और न कोई
 आरजू ही
 नहीं है आस भी कोई की रंग उतरेंगे
खिलेंगे फूल कलि चट्केगी , आयेगी बहार
हवा हँसेगी चमन महकेंगे
 मगर अब चाहता हूँ सुबहें गीत गा ही उठें
झूम उठे ये समंदर ओ फूल भी महकें
उठा के हाथ ये कहता हूँ खुदा से की कर क़ुबूल दुआ
मेरे होतीं से अब तेरे लबों का जम गुज़रे

है मेरा ख्वाब तेरे साथ एक शाम गुज़रे

शनिवार, 9 नवंबर 2013

एक रंग था ,,एक जोश था 

एक रंग था
एक  जोश था
दीवानगी थी जूनून था
सब टूटता सा है जा  रहा
सब छूटता सा है जा रहा
बस धुआं धुआं सी है ज़िन्दगी
बड़ी उलझी उलझी रुकी रुकी

जिन आँखों में कभी आग थी
वो बुझी बुझी हैं झुकी झुकी
वो तनी  सी मुट्ठियाँ
कभी दौड़ती थीं जो बिजलियाँ
कही खो गयी

चुप हो गयी आवाज़ वो
जिनमे बला की आग थी
जिसमे था इतना हौसला
कि आशमा दहशत में था
है अब वो खुद दहशतजदा

ये क्या हुआ

एक रंग था
एक  जोश था
दीवानगी थी जूनून था

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013



ज़िन्दगी की धूप जब जब मुझे झुलसाने लगती है
मैं तुम्हारे कंधे पे सर रख कर 
थोडा सुस्ता  लेता हूँ 
तुम्हारी नर्म उंगलिया 
सुलझाती हैं मेरे उलझे हुए केश
तुम्हारी आँखों में लहरा उठता है एक समुद्र 
एक कलि की तरह चटकती है तुम्हारे होठों से
 एक श्वेत चंचल मुस्कराहट
फूट पड़ता है झरना 
हवाओं में सुगंध भर जाती हैगाल  सुर्ख हो जाते हैं तुम्हारे
समय भी गुलाबी हो जाता है

बुधवार, 6 नवंबर 2013

गुनगुनी सी मखमली सी
याद  तेरी
छेड़ जाती है
अकेले में कभी
तो रात भर फिर जागता हूँ

सोचता हूँ मैं तुम्हे क्या याद हूँगा
साथ जो लम्हे बिताये
वो तुम्हे क्या याद होंगे

याद होगी क्या तुम्हे मेरी वो पहली प्रेम पाती
शाम की वो मस्तियाँ सुबहों के वो मीठे तराने याद होंगे

याद होगा क्या तुम्हे
कंधे से मेरे सिर टिकाना
रूठना और मान जाना
मुस्करा कर फिर मुझे ग़ालिब की वो ग़ज़लें सुनाना
याद होगा

सोचता हूँ रात भर और जागता हूँ


गुनगुनी सी मखमली सी
याद  तेरी
छेड़ जाती है
अकेले में कभी
तो रात भर फिर जागता हूँ

सोमवार, 4 नवंबर 2013



तुम्हारी उत्तप्त सांसों का ज्वार
जब जब टकराता है 
मेरी कनपटी से
मैं उन्मत्त हो 
पी जाना चाहता हूँ
सारा समुद्र
रोंद डालना चाहता हूँ
समूची पृथ्वी
मसल देना चाहता हूँ
चाँद और सूरज
जकड़ लेता हूँ तुम्हे 
बाँहों के मजबूत घेरे में
और तुम भी समां जाती हो 
मुझमे
सारी सृष्टि समेटे हुए
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