गुरुवार, 13 मार्च 2014

माना आँगन धूप भरा है पर मुट्ठी भर छाया भी है


माना आँगन धूप भरा है 

पर मुट्ठी भर छाया भी है


माना ढेरों सपने टूटे 
अपने और बेगाने रूठे
मंजिल की तलाश में 
जाने कितने ठौर ठिकाने छूटे

उलझन के झुरमुट में
अक्सर ही किरणों के हिरन फंसगए
अंतर में थी पीर भयंकर
लेकिन फिर भी अधर हंस गए

ढहते प्राणों के तट ने जाने कितने आघात सहे हैं
अनजाने भविष्य के सपने
लहरों संग दिन रात बहे हैं

माना रात बहुत लम्बी है
और बहुत है दूर सवेरा
पर सब सपने सच्चे होंगे
कहता है अंतर्मन मेरा

माना बहुत बहुत खोया है
पर थोडा कुछ पाया भी है

माना आँगन धूप भरा है
पर मुट्ठी भर छाया भी है ,,,

मंगलवार, 11 मार्च 2014

गुलाब गैंग

गुलाब गैंग
माधुरी दीक्षित व जूही चावला कि फ़िल्म।
कहानी में एक दीदी है रज्जो जिसे पढ़ने कि जिद थी बचपन में और तमाम अवरोधों के बावजूद   उसने पढाई की जहाँ  तक वो कर सकती थी गांव के किनारे उसका एक आश्रम है जहां सामाज की सताई हुई औरतों को सहारा मिलता है और बालिकाओं कि सिक्षा होती है
आश्रम के बाहर है छल प्रपंच लालच अन्याय अत्याचार असमानता और स्वार्थ कि राजनैतिक और सामजिक दुनिया।  रज्जो इन सबसे लड़ती है कई मोर्चों पर अपने सहयोगियों के साथ ,गुलाबी साडी पहने हुए कुछ औरतें जो जानती हैं कि जब हक़ की  बात समझ में ना आये हक़ मारने वालों को तो फिर डंडा सबका पीर होता है।  rod is god . और फ़िल्म में दूसरी ऒर है एक महिला राजनैतिज्ञ जिनके लिए ज़िन्दगी सिर्फ किस्मत और टाइमिंग का खेल है।
पर अंत तक ये फ़िल्म एक बिखरी बिखरी सी फ़िल्मही लगती है।  अंत तक कहानी से तादात्म्य नहीं बैठ पाता।
फ़िल्म एक साथ बहुत कुछ समेटने के चक्कर में बिखर जाती है।
निर्देशक ने दृश्य बहुत अच्छे बुने हैं पर उन्हें एक दुसरे में सही तरह से जोड़ने में असफल ही दिखाई  देता है।
फ़िल्म में संगीत अच्छा है।  एक्शन प्रभावित करता है कुछ दृश्य तो बेहद रोमांचक है एक्शन वाले।  माधुरी  एक्शन करते हुए  कही कही दुर्गा सी दिखती है।
फ़िल्म का कथानक अगर बिखरा हुआ न होता और एक निर्धारित दिशा कि ऒर चलता तो ये फ़िल्म और भी बेहतर हो सकती थी। 

रविवार, 2 मार्च 2014

'हाईवे '

'हाईवे ' देखी। फ़िल्म को देख रहा था और मुद्रा राक्षस का लिखा नाटक गुफाएँ  दिमाग में बार बार कौंध रहा था।दो विपरीत पृष्ठभूमियों नायक नायिका। फ़िल्म का नायक महावीर भाटी अनजाने में अपहरण कर लेता है  त्रिपाठी जो कि एक बड़ा व्यवसायी है की बेटी का जो अपने घर केउबाऊ  वातावरण  से निकल कर अपने मंगेतर के साथ सैर पर निकली थी।  पर यह अपहरण अपहर्ता और अपहृत को एक यात्रा का मौका देता है अपने अंतर कि यात्रा का। जहाँ झूझते हैं वे अपने अकेले पन से और पाते हैं सहयात्री एक दुसरे को अपनी जीवन यात्रा का। फ़िल्म स्त्री सुरक्षा की बात करती है न सिर्फ देहरी के बाहर बल्कि घर की  देहरी के भीतर भी   . रणदीप हुड्डा औरआलिया भट्ट   का शानदार अभिनय और साथ ही सपोर्टिंग एक्टर का बेहतरीन सपोर्ट फ़िल्म की  कहानी को रोचक तरीके से बुनते हुए आगे बढाता है।फ़िल्म का संगीत ठीक ठाक है पर याद रखने और याद रहने लायक नहीं। सिनेमेटोग्राफी बहोत उम्दा खासकर हिमाचल और कश्मीर के दृश्य। फ़िल्म कि जो सबसे बड़ी कमी है वो है स्क्रीनप्ले। कहानी कहने का ढंग। कई बार झोल दीखते हैं और लगता है कि इम्तियाज़ के दिमाग में जो फ़िल्म बनी थी परदे पर उतारते वक़्त उसमे कुछ कमी रह गयी पर ओवरआल फ़िल्म एक बार देखि जा सकती है।   मित्र रामजी सिंह के शब्दों में कहूँ  अपहरण के बहाने घर की देहरी के भीतर स्त्री की असुरक्षा को विमर्श का विषय बनाना ....high class family(समाज की पुरानी/सड़ी इकाई परिवार) की घुटन से मुक्ति की चाहत,मुक्त न हो पाने का मलाल, पहल न करने की विवशता के मनोविज्ञान को नाटकीय अंदाज मे पकड़ने की अच्छी कोशिश ...... रणदीप हूड्डा और आलिया भट्ट से बेहद संवेदनशील काम करा लेने का माद्दा इम्तियाज़ मे है,खासकर प्रकृति/पहाड़ की गोद मे लिपट कर रोने का दृश्य में तो जैसे स्त्री-पुरुष दोनों ही अमानवीय समय से रोते,भागते रहते हैं लेकिन फिर भी .......... कहीं-2 संवादों के गैर जरूरी दोहराव को रोका जाता तो फिल्म और भी कसी होती .....फिर भी निराधार लटकों-झटकों से ऊबे संवेदनशील दर्शक के लिए यह फिल्म अवश्य ही देखने लायक है . 


आप भी देखें 
केबिनेट ने प्रस्ताव पास कर दिया कि जाटों को अब पिछड़ी जाती मान लिया जाएऔर उसे आरक्षण दिया जाए सरकारी नौकरी में । यह जाति अब तक सामान्य जाति थी। अब तो शंका होने  लगी है कि देश प्रगति कर रहा  है या अवनति कि और जा रहा है। ६५ वर्षों में जातियाँ जो पिछड़ी हुई थीं उन्हें तरक्की करते हुए सामान्य जाति  हो जाना चाहिए था वहाँ हुआ ये कि जो सामान्य जाति थी वो पिछड़ी हो गयी और जो पिछड़ी हुई थी वो अब दलितों कि श्रेणियों में आ गयी जैसे कि उत्तरप्रदेश की सरकार कुम्हार आदि जातियों को अनुसूचित जाती का दर्ज दे रही  . शायद ६५ वर्षों का ये छद्म लोकतंत्र लगातार फेल होता जा रहा है। ये तथाकथित व्यवस्था और तथाकथित व्यवस्थापकों का नाकारापन और व्यर्थता का इंगित करता है। 
                                             

शनिवार, 1 मार्च 2014

प्रभु जी तुम कैसे प्रोफेसर

प्रभु जी
तुम कैसे प्रोफेसर
तुम हम को समझत शिकार
हम जानत तुम हो गोली
ट्यूसन के हित बोलत हो तुम
हमसे मीठी बोली
फिर हु हम जो पढ़त न तुमसों
अंक करत हैं ठिठोली
हार मानि के कहत हैं हम
प्रभु तुम हमरे परमेश्वर
प्रभु जी तुम कैसे प्रोफेसर

हमरे धन पर डालत डाका
करत हो मुश्किल जीना
हम जानत हैं गुरूजी तुम को
तुम होबड़े कमीना
तुम खुद को हो कहत देव
हम जानत तुम रजनीचर
प्रभु जी तुम कैसे प्रोफेसर