बुधवार, 25 दिसंबर 2013

हर बार यही तो होता है

हर बार यही तो होता है 

कुछ लोग नए नारे गढ़ते
कुछ झंडों पर फिर रंग चढ़ते
कुछ तेल पिए डंडे लेकर 
कुछ मुस्टंडे कसरत करते

फिर कान फोड़ता स्पीकर
और रोज सभाएं होत्ती हैं 
भड़काऊ भाषण सुन सुन कर
 फिर गर्म हवाएं होती हैं

फिर वही पुराने घिसे पिटे 
वादे दोहराए जाते हैं 
कपडा मकान और रोटी के 
फिर सपने दिखाए जाते हैं

फिर तिलक तराजू तलवारों पर
जम कर की जाती पालिश 
हाथों में गीता लेकर के 
मिथ्या बोली जाती खालिश

कुछ गुंडे लेते राम नाम 
कुछ गदहे बर्फी खाते हैं
फिर एक हाथ में  रूपये रख 
और दूजे मे बन्दूक थम कर
 बड़ी अदा से लुभा लुभा कर 
लोग डराए जाते हैं


और इन सब शोर शराबों में 
कुछ जगा हुआ ,, कुछ ख्वाबो में
सूनी आँखें टेढ़ी आड़ी
चेहरे पर लिए ठूंठ दाढ़ी
दिन भर सड़कों पर घूम घाम
सह कर  बारिश और धूप घाम 
मुह ढक कर फटे अंगोछे से 
घुटने रख पेट में रिक्शे पे
 हर रत मंगरुआ सोता है

हर बार यही तो होता है
                       

रविवार, 15 दिसंबर 2013

विराट महिला सम्मेलन

   टावा प्रदर्शनी के विराट महिला सम्मेलन में हर वर्ष कुछ महिलाओं को सम्मानित किया जाता हैं। उन्हें पुरुस्कार और सम्मान दिए जाते हैं कुछ प्रतियोगिताओं में विजयी होने पर और प्रतियोगिताएं वही कि कौन अच्छी सलाद बनाता है ,,कौन अच्छी रंगोली ,,,कौन नृत्य में बाजी मारता है और कौन गायन में। क्या इन महिला सम्मेलनों की आयोजक /संयोजक सम्मानित महिलाओं कि दृष्टि में महिला के कार्यों का दायरा बस यहीं तक है ? पूरे वर्ष में क्या इटावा कि महिलाएं इन कार्यों बेहतर कार्य नहीं कर पातीं? लेखन के क्षेत्र में ,,सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में(सामाजिक कार्यों से मेरा तात्पर्य कुछ विशेष दिवसों पर अस्पतालों में मरीजों एवं अंध विद्यालय के बच्चों को फल बाँट देने से बिलकुल नहीं है ), ज्ञान विज्ञानं एवं अनुसन्धान के क्षेत्र में ,,,खेल के क्षेत्र में या राजनीती के क्षेत्र में। क्या पूरे वर्ष के क्रिया कलापों के आधार पर इन विभिन्न क्षेत्रों कि अग्रणी महिलाओं को सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए इटावा प्रदर्शनी के विराट महिला सम्मेलन में ? शायद इन विराट महिला सम्मेलनों की आयोजिकाओं को अपनी दृष्टि को विस्तार देना चाहिए।

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

पिछड़ता भारत

 

भारत गांवों का देश है। भारत की  अधिकाँश जनता गांवों  रहती है और सरकारों को  बनाने में नगरों से अधिक गाँवो का योगदान रहता है। परन्तु आज गाँव और नगर को प्राप्त सुविधाओं की बात अगर तुलनात्मक रूप से करें तो समस्त सुविधाएँ नगरों में ही केंद्रित नज़र  आती हैं। भारत के गाँव और किसान सिर्फ कच्चा माल रह गए हैं सत्ता के लिए जिनके बलबूते सत्ताएं अपनी विलासिताओं कि पूर्ती करती हैं। 
             
          बुआई के समय किसानो को न सही बीज मिलते हैं न उनके खेतों के लिए पानी ,,बिजली की स्थिति यह है कि किसी भी पढ़े लिखे समझदार व्यक्ति  को बड़ी अटपटी लग सकती है उत्तर प्रदेश के गाँवों में बिजली एक हफ्ते दिन की होती है अगले हफ्ते रात की। और वो भी कितनी आती है इसे बताने की जरूरत नही है। 

             जरूरत के वक़्त खाद कि जगह पुलिस की लाठियां मिलती हैं। फसल होने के बाद किसानो को उसका वाजिब मूल्य शायद ही मिल पाता है उल्टा उसे मंडी में होने वाली लूट से गुज़ारना होता है।और किसान जब भी दिखाई देता है इस कृषि प्रधान और गाँवों के देश में तो हमेशा अपनी अनंत चिंताओं और मुश्किलों के साथ दुनिया  बहुत बदली पर किसान के लिए ये आज भी वैसी है जैसी पहले हुआ करती थी किसानो के लिए कुछ भी नहीं बदला बल्कि दिनों दिन जटिल होता जा रहा है।   
             

                      गाँवों में प्राप्त होने वाली सुविधाओं की बात करें आज भी भारत के कई गाँव आदिम अवस्था में हैं।  न बिजली न पीने को साफ़ पानी न अच्छे स्कूल न अस्पताल कुछ गाँव तो आज तक सडकों से भी वंचित हैं। आपको उदहारण दूँ  उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के एक गाँव का,, चकरनगर तहसील में एक गाँव है बिरौना बाग पिछले दिनों वहाँ जाने का संयोग मिला। इस गाँव के स्कूल तक पहुचना था जब हम चकरनगर से फूप जाने  वाली रोड पर मोटर साईकल पर  बढ रहे थे तो रास्ते में खड़े एक व्यक्ति से हमने गाँव का पता पूछा। बिरौना बाग का नाम सुन कर उस आदमी का पहला उत्तर था कि वहाँ नही पहुच पाओगे। हमने कहा कि जाना आवश्यक है तो उसने एक तरफ इशारा करते हुए कहा कि इस रास्ते पर चले जाओ।  हम सड़क पर आगे बढे कुछ दूर जाने पर  पक्की सड़क ख़त्म हो गयी हम कच्ची सड़क पर बढ़ते रहे वो भी खत्म हुई और आगे खेतों के बीच में  एक पगडंडी आगे बढ़ रही थी। हम उस पर आगे बढ़ते हुए चम्बल के बीहड़ों के खार और करार लांघते चल रहे थे। सामने नदी दिखाई पड़ी तो लगा कि शायद रास्ता भटक गए फिर नदी के किनारे किनारे कुछ दूर चलने पर गाँव मिल गया। लगभग ५ k.m. तक कोई सड़क नही मिटटी के ऊंचे नीचे टीले जहाँ साइकिल तक चला पाना सम्भव नहीं। बरसात में इस गाँव का संपर्क पूरी तरह कट जाता है। और हाँ संचार क्रांति के इस युग में यहाँ मोबाइल फोन पर कोई नेटवर्क नहीं होता। 
                  
                  गाँव में कुछ लोगों से बात हुई तो मालूम हुआ कि इस गाँव में लड़कों कि शादी होना भी एक समस्या है।  कोई भी बाहर का आदमी इस गाँव में अपनी लड़की नहीं ब्याहना चाहता। शादी डॉट कॉम के ज़माने में भी लोग यहाँ अपना जीवन साथी पाने को तरस रहे हैं। डर लगता है सोच कर कि बीमार मरीजों का क्या हाल होता होगा इलाज के लिए अस्पताल तक कि यात्रा में। यहाँ कोई अस्पताल नहीं है। 
     

                           स्वस्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से भी भारत के गाँवो की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। सरकार ने कई गांवों में सभी गाँवों में नहीं स्वास्थ केंद्र बना कर अपने कर्तव्यों कि इति श्री कर ली है। और ये स्वस्थ्य केंद्र ग्रामीणो को इलाज प्रदान करने के लिए नहीं बल्कि कुछ चुनिंदा नौकरशाहों और राजनेताओं कि कमाई का जरिया बनने के काम ज्यादा आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के स्वस्थ्य विभाग का घोटाला तो यही कहता है।  और इस स्वस्थ्य केंद्र पर डॉक्टर भी आ कर इलाज करें ये तो सपने वाली बात होगी। यहाँ कि जिम्मेदारी प्रायः एक अर्धकुशल व्यक्ति ही उठाता है। और हद तो ये थी कि कुछ दिनों पहले सरकार गाँवों कि जनता को एक अलग किस्म का अर्ध ट्रेन्ड  डॉक्टर देने वाली थी जो कि एक सामन्य mbbs डॉक्टर से कहीं घटिया क्वालिटी का होता। भला हो इंडियन मेडिकल कॉउंसिल का जिसने इसका विरोध कर दिया अन्यथा तो कृषि प्रधान और गाँवों के देश भारत को एक घटिया श्रेणी के चिकित्सक प्रदान कर दिए जाते। राजनेताओं को छींक भी आए तो विदेश जाएँ और इन्हे विदेश जाने लायक बनाने वाली ग्रामीण जनता घटिया और झोला छाप डॉक्टर से काम चलाये। 


                     शिक्षा भी कोई कम दोयम दर्जे कि नहीं है गाँवों की। महानगरों के विद्यालय जहाँ चमचमाती मोटरों से उतारते  कोट टाई पहने बच्चे जिनके लिए विद्यालय का दरवान मुस्कुराते हुए दरवाजा खोलता है तो स्वाभाविक रूप से बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ता है और दूसरी तरफ गाँव का सरकारी विद्यालय जहाँ बच्चे अपने फटे हुए बस्तों में मुफ्त में मिली किताबें जिनका कागज और छपाई कतई आकर्षक नहीं होती लेकर स्कूल आते हैं। कुछ एक तो बिना चप्पलों के ही , खुद ही झाड़ू लगते हैं विद्यालय में साफ़ सफाई करते हैं और जहाँ उनके नगरों के समवयस्क बच्चे कंप्यूटर और अन्य तकनीक द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं वे अध्यापकों के आभाव में और तकनिकी साधनो के आभाव में  पिछड़ते चले जाते हैं। और एक अकुशल मजदूर बनने की राह पर चल पड़ते हैं।  ये मत कहियेगा कि ग्रामीण विद्यालयों में भी कंप्यूटर हैं ,,,वो तो कब के पंखों समेत चोरी हो गए और थानेदार साहब ने रिपोर्ट तक नहीं लिखी। 

                        भारत को अगर सुखी समृद्ध और सम्पन्न बनाना है तो हमे सबसे पहले भारत के ग्राम और किसान को सुखी सम्पन्न और समृद्ध बनाना होगा। भारत के विकास कि नीतियों को गाँवों कि तरफ मोड़ना पड़ेगा अन्यथा हम भारत का एकांगी तथाकथित विकास करते रहेंगे।  भारत की ८०% जनता को सिर्फ कुछ लोगों के लालच और स्वार्थ के लिए पिछड़ा रखना किसी अपराध से कम नहीं है। 

        

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

क्या मास्टर जी वाकई फेल हो गए हैं?




        टीवी चेनल्स कई बार दिखाते हैं "मास्टर जी फेल हो गए" ,इस कार्यक्रम में सरकारी स्कूल के अध्यापक से सामान्य ज्ञान के कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं और अक्सर कुछ अध्यापक उनका हास्यास्पद उत्तर देते  दिखाई देते हैं।  ये और बात है कि इन कार्यक्रमो में सिर्फ उन्ही अध्यापकों कि तस्वीरें दिखाई जाती हैं जिन्होंने गलत जवाब दिए , उनके नहीं जिन्होंने अपने उत्तरों से खबरिया चेन्नल के संवाददाता को हो सकता है नि:प्रश्न   कर दिया हो।  इस बहस में न जाते हुए कि कौन सही है कौन गलत , एक अध्यापक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी बनती है कि सबसे पहले इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक विचार करें कि सरकारी  अध्यापक की इस दशा के लिए जिम्मेदार कौन है ?

,,,चयन से ही प्रारम्भ करें तो अध्यापक की भर्ती ही अक्सर विवादों से घिरी होती है।  हाई स्कूल ,,इंटरमीडिएट और स्नातक के प्राप्त अंकों के आधार पर बनी मेरिट अक्सर कुछ  अयोग्य लोगों को चयनित करवा देती है।
  ,,,सरकारी नौकरी पा लेने के बाद एक निश्चिंतता जो मन मष्तिष्क पर सवार हो जाती है वो भी कई बार ज्ञान को अपडेट करने से रोक लेती है शिक्षक को. अध्यापक भी जनता है कि अब नौकरी कि सुरक्षा कि गारंटी मिल चुकी है ,,,,लापरवाही भी उसका कुछ नहीं बिगड़ सकती क्युकि सरकारी विद्यालयों में न तथाकथित नेताओं के बच्चे पढ़ते हैं और न ही नौकरशाहो के। . जिनके पढ़ते हैं उन्हें अव्वल तो चिंता ही नहीं है कि बच्चे पढ़ भी रहे हैं  या नहीं अगर चिंता भी है तो उसके विरोध का कोई  मतलब भी है नहीं।  समाज  सम्मानित व्यक्तियों  बच्चे तो महँगी फीस वाले विद्यालय में पढ़ते हैं। ये और बात है कि इन महँगी फीस वाले निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षक सरकारी विद्यालयों में नौकरी पाने के लिए आवेदन करते हैं और कम अंक के कारण नौकरी से वंचित रह जाते हैं।  अब ऐसे में शिक्षकों की  चयन प्रणाली पर संदेह होने लगता है और सरकार है कि न जाने क्यों  चयन कि  यही प्रणाली अपनाये हुए है।तो यह तो कहा जा सकता है कि सरकारी अध्यापकों के चयन की प्रणाली फेल हुई है वो फेल हुए हैं  जिन्होंने इस चयन प्रणाली को लागू किया किया है।  मास्टर जी फेल नही हुए।
                                         अब बात करें कार्य स्थल की सरकारी स्कूल अधिकतर देहातों में ,,हैं। इनमे नक्सल प्रभावित इलाके दुर्गम इलाके और दस्यु प्रभावित इलाके भी हैं। मैं ऐसे कई अध्यापकों को जनता हूँ जिनका अपहरण हो गया था और फिरौती की एक बड़ी धनराशि देकर छूट कर आये थे। खबरिया चैनल कभी यह नहीं दिखाते कि कि ज़ी लिटेरा और दिल्ली पब्लिक स्कूल जैसे निजी विद्यालय इन देहातों और दुर्गम इलाकों में क्यों नहीं। अगर ये विद्यालय नगरों और महानगरों में सरकारी विद्यालयों कि शिक्षा के खिलाफ एक षड़यंत्र चला कर खुद को बेहतर साबित करने का प्रयास करते हैं।  कई बार सरकारी मशीनरी भी  सहयोग करती है। अगर ये बेहतर हैं तो सरकार को चाहिए था कि इन्हे किसी महानगर में अपनी शाखा प्रारम्भ होने से पहले एक शर्त इनके सामने रखी जाती कि अपनी गुणवत्ता पूर्ण सेवा प्रदान करने वाली एक शाखा ये सुदूर देहातों में भी लगाएंगे। क्युकि अगर ये बेहतर हैं तो देहाती बच्चों को भी हक़ है इनकी अच्छी सेवा लेने का पर देहातों में बिजनेस नही है। और शिक्षा को इन शिक्षा माफियाओं ने धंदा बना दिया है।
     अब सरकारी अध्यापकों के द्वारा किये जाने वाले कार्यों को भी लिया जाये। कहने को तो शिक्षा अधिकार क़ानून लागू है।  शिक्षक से अध्यापन के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं लिया जा सकता परन्तु सच्चाई इस से बिलकुल अलग है. . .,कहा तो यह भी जा सकता है कि ऐसा कोई भी कार्य  जिसे करने के लिए कई कार्मिकों कि आवश्यकता  होती है वह सारे सरकारी कार्य सरकारी  अध्यापकों से ही कराये जाते हैं।  चाहे स्वास्थ  विभाग का पोलिओ उन्मूलन कार्य क्रम हो।  या कोई सरकारी सर्वे। यहाँ तक कि कुछ गैर सरकारी संगठनो जैसे कि  शिव नाडर फाउन्डेसन का विद्या ज्ञान हो या भारत स्काउट गाइड  इनका प्रचार प्रसार भी सरकारी अध्यापक ही  करता है जिस के लिए उसे बाकायदा आदेश अपने उच्चाधिकारियों से प्राप्त होते हैं।
       अब बात की  जाए उन विद्यार्थियों की जिनके आधार पर गुरु जी को फेल  हैं मीडिआ वाले।  गाँव में अगर १०० विद्यार्थी हैं। तो उनमे से ७० जो किपढ़े   लिखे परिवारों से थे पहुँच गए निजी विद्यालयों में  उनका दाखिला  प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करने पर हुआ होगा।  उनके माता पिता को भी एक परीक्षा से गुजरना पड़ा होगा कई विद्यालयों में।  और ये माता पिता  उस बच्चे को विद्यालय द्वारा दी गयी लिस्ट के अनुसार समस्त प्रकार की अध्यन सामग्री उपलब्ध कराएँगे। दूसरी तरफ इन बच्चो से कम आई क्यू वाले बच्चे होंगे कम आई क्यू  इसलिए कह रहा हूँ क्युकि इनका आई क्यू  टेस्ट  के बिना ही दाखिला हुआ। इन बालकों के अभिभावकों के पास इतना धन नहीं कि वो इन्हे वो सारी सुविधाएँ दे पाये जो धनवानो के बालकों को प्राप्त हो रही हैं।  वहाँ स्मार्ट क्लासेस हैं.,विद्यार्थियों कि संख्या के अनुसार शिक्षक हैं और यहाँ सरकारी विद्यालयों में हो सकता है कि २०० बालकों के लिए १ ही शिक्षक हो जो स्वयं ही विद्यालय का चपरासी भी होता है सफाई कर्मी भी ,,रसोइयों से मिड डे मील बनवाने वाला मुख्य रसोइया भी ,,पूरे गाँव के बच्चों को पोलिओ कि दवा पिलाने वाला स्वस्थ कर्मी भी होता है और साथ ही उस गाँव के वोट बनाने वाला चुनाव आयोग का कर्मी भी और इन सबके बीच वह शिक्षा प्रदान करने वाला शिक्षक भी।
             क्या अब भी कहा जा सकता है कि मास्टर फेल हुआ है।  अगर फेल ही मानना है तो शिक्षकों के चयन की सरकारी प्रणाली ,,,सरकारी शिक्षा नीतियाँ ,,,,वह वातावरण जहा शिक्षक  काम करता है  को मानिये।
सरकारी मास्टर तो इन सारी  विसम परिस्थितियों में भी शिक्षा की अलख जगा रहा है उनके बीच जो शिक्षा का महत्व नहीं जानते। मास्टर कभी फेल नहीं होता।
       
      

रविवार, 1 दिसंबर 2013

मास्टर जी अख़बार में खोए
मैडम जी मोबाइल में
होरी के नाती पोता अब
पढ़त हैं केवल फाइल में


रोज सबेरे करें प्रार्थना
जंगल मंगल भारत भागा
किरहे चावल खाय रहे हैं
लिए कटोरा होय न नागा

आजादी गणतंत्र दिवस पर लडुआ
खाएं  स्टाइल में

होरी के नाती पोता अब
पढ़त हैं केवल फाइल में

लिए ककहरा खड़ा मंगरुआ
मैडम जी लेओ जाँच देओ  तुम
मैडम जी ने जड़ा तमाचा
भाग यहाँ  से उल्लू की दुम
तेरे जैसे कभी कलट्टर हुए कि  तू ही हो जाएगा '
यही करेगा मजदूरी और कर्ज़ा  लेकर
मर जाएगा

खड़ा मंगरुआ सुबक रहा
ज्यों फिलिस्तीनी ,,इज़राइल में

होरी के नाती पोता अब
पढ़त हैं केवल फाइल में।।।।।।
दोस्त मेरे 
जानता हूँ 
साथ तुम न दे सकोगे
ये सफ़र मेरा है 
और मैं ही 
इसको तय करूंगा 
चाह कर भी मैं 
बदल पाउँगा न ये रास्ता 
और तुम भी 
रख न पाओगे क़दम 
मेरे कँटीले रास्ते पर 
फिर भी 
मन ये चाहता है 
साथ दो तुम 
हाथ दो तुम 
हाथ में मेरे 
मगर मैं जानता हूँ 
दोस्त मेरे 
ये सफ़र मेरा है 
और मैं ही 
इसको तय करूंगा 
दोस्त मेरे 
साथ तुम न दे सकोगे।