मंगलवार, 13 सितंबर 2016

होंगे ही सभी सर्वहारा एक

सुलगती हुई आग
और तनती हुई मुट्ठियाँ
भरती अहसास ये
कि सब कुछ
अभी ठीक नहीं
चारों और छाई हुई
ख़ुफ़िया उपशांति
चुपके से कह जाती
कानो में
प्राणों में
हो रहे जो षड्यंत्र
सहमा सा लोकतंत्र
कंठों में धंसी हुई
लाठियों की कैद से
मुक्त होना चाहता है।
इंक़लाबी नारों से
युक्त होना चाहता है
आँखों से रिसते हुए
 खून के वो सुर्ख कतरे
फैलते ही जाते हैं
लाल हो रही है ज़मीं
लाल हो रहा है गगन
उभरेगा
 मुक्ति का स्वर
गाता है गीत कोई
विप्लव के
जीवन के
साक्षी है अग्नि
जिसे बैठी हैं घेर सभी
योद्धा इच्छाएं
बजता है मादल
उभरा है क्रांति गान
हाँ ये वही उलगुलान
रोके रुकेगा नहीं
बिल्कुल झुकेेगा नही
दशों दिशाएं,
मौन
दम साधे
रहीं देख
होंगे ही
होंगे ही
दुनियाँ के
सभी सर्वहारा एक।