बुधवार, 25 दिसंबर 2013

हर बार यही तो होता है

हर बार यही तो होता है 

कुछ लोग नए नारे गढ़ते
कुछ झंडों पर फिर रंग चढ़ते
कुछ तेल पिए डंडे लेकर 
कुछ मुस्टंडे कसरत करते

फिर कान फोड़ता स्पीकर
और रोज सभाएं होत्ती हैं 
भड़काऊ भाषण सुन सुन कर
 फिर गर्म हवाएं होती हैं

फिर वही पुराने घिसे पिटे 
वादे दोहराए जाते हैं 
कपडा मकान और रोटी के 
फिर सपने दिखाए जाते हैं

फिर तिलक तराजू तलवारों पर
जम कर की जाती पालिश 
हाथों में गीता लेकर के 
मिथ्या बोली जाती खालिश

कुछ गुंडे लेते राम नाम 
कुछ गदहे बर्फी खाते हैं
फिर एक हाथ में  रूपये रख 
और दूजे मे बन्दूक थम कर
 बड़ी अदा से लुभा लुभा कर 
लोग डराए जाते हैं


और इन सब शोर शराबों में 
कुछ जगा हुआ ,, कुछ ख्वाबो में
सूनी आँखें टेढ़ी आड़ी
चेहरे पर लिए ठूंठ दाढ़ी
दिन भर सड़कों पर घूम घाम
सह कर  बारिश और धूप घाम 
मुह ढक कर फटे अंगोछे से 
घुटने रख पेट में रिक्शे पे
 हर रत मंगरुआ सोता है

हर बार यही तो होता है
                       

रविवार, 15 दिसंबर 2013

विराट महिला सम्मेलन

   टावा प्रदर्शनी के विराट महिला सम्मेलन में हर वर्ष कुछ महिलाओं को सम्मानित किया जाता हैं। उन्हें पुरुस्कार और सम्मान दिए जाते हैं कुछ प्रतियोगिताओं में विजयी होने पर और प्रतियोगिताएं वही कि कौन अच्छी सलाद बनाता है ,,कौन अच्छी रंगोली ,,,कौन नृत्य में बाजी मारता है और कौन गायन में। क्या इन महिला सम्मेलनों की आयोजक /संयोजक सम्मानित महिलाओं कि दृष्टि में महिला के कार्यों का दायरा बस यहीं तक है ? पूरे वर्ष में क्या इटावा कि महिलाएं इन कार्यों बेहतर कार्य नहीं कर पातीं? लेखन के क्षेत्र में ,,सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में(सामाजिक कार्यों से मेरा तात्पर्य कुछ विशेष दिवसों पर अस्पतालों में मरीजों एवं अंध विद्यालय के बच्चों को फल बाँट देने से बिलकुल नहीं है ), ज्ञान विज्ञानं एवं अनुसन्धान के क्षेत्र में ,,,खेल के क्षेत्र में या राजनीती के क्षेत्र में। क्या पूरे वर्ष के क्रिया कलापों के आधार पर इन विभिन्न क्षेत्रों कि अग्रणी महिलाओं को सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए इटावा प्रदर्शनी के विराट महिला सम्मेलन में ? शायद इन विराट महिला सम्मेलनों की आयोजिकाओं को अपनी दृष्टि को विस्तार देना चाहिए।

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

पिछड़ता भारत

 

भारत गांवों का देश है। भारत की  अधिकाँश जनता गांवों  रहती है और सरकारों को  बनाने में नगरों से अधिक गाँवो का योगदान रहता है। परन्तु आज गाँव और नगर को प्राप्त सुविधाओं की बात अगर तुलनात्मक रूप से करें तो समस्त सुविधाएँ नगरों में ही केंद्रित नज़र  आती हैं। भारत के गाँव और किसान सिर्फ कच्चा माल रह गए हैं सत्ता के लिए जिनके बलबूते सत्ताएं अपनी विलासिताओं कि पूर्ती करती हैं। 
             
          बुआई के समय किसानो को न सही बीज मिलते हैं न उनके खेतों के लिए पानी ,,बिजली की स्थिति यह है कि किसी भी पढ़े लिखे समझदार व्यक्ति  को बड़ी अटपटी लग सकती है उत्तर प्रदेश के गाँवों में बिजली एक हफ्ते दिन की होती है अगले हफ्ते रात की। और वो भी कितनी आती है इसे बताने की जरूरत नही है। 

             जरूरत के वक़्त खाद कि जगह पुलिस की लाठियां मिलती हैं। फसल होने के बाद किसानो को उसका वाजिब मूल्य शायद ही मिल पाता है उल्टा उसे मंडी में होने वाली लूट से गुज़ारना होता है।और किसान जब भी दिखाई देता है इस कृषि प्रधान और गाँवों के देश में तो हमेशा अपनी अनंत चिंताओं और मुश्किलों के साथ दुनिया  बहुत बदली पर किसान के लिए ये आज भी वैसी है जैसी पहले हुआ करती थी किसानो के लिए कुछ भी नहीं बदला बल्कि दिनों दिन जटिल होता जा रहा है।   
             

                      गाँवों में प्राप्त होने वाली सुविधाओं की बात करें आज भी भारत के कई गाँव आदिम अवस्था में हैं।  न बिजली न पीने को साफ़ पानी न अच्छे स्कूल न अस्पताल कुछ गाँव तो आज तक सडकों से भी वंचित हैं। आपको उदहारण दूँ  उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के एक गाँव का,, चकरनगर तहसील में एक गाँव है बिरौना बाग पिछले दिनों वहाँ जाने का संयोग मिला। इस गाँव के स्कूल तक पहुचना था जब हम चकरनगर से फूप जाने  वाली रोड पर मोटर साईकल पर  बढ रहे थे तो रास्ते में खड़े एक व्यक्ति से हमने गाँव का पता पूछा। बिरौना बाग का नाम सुन कर उस आदमी का पहला उत्तर था कि वहाँ नही पहुच पाओगे। हमने कहा कि जाना आवश्यक है तो उसने एक तरफ इशारा करते हुए कहा कि इस रास्ते पर चले जाओ।  हम सड़क पर आगे बढे कुछ दूर जाने पर  पक्की सड़क ख़त्म हो गयी हम कच्ची सड़क पर बढ़ते रहे वो भी खत्म हुई और आगे खेतों के बीच में  एक पगडंडी आगे बढ़ रही थी। हम उस पर आगे बढ़ते हुए चम्बल के बीहड़ों के खार और करार लांघते चल रहे थे। सामने नदी दिखाई पड़ी तो लगा कि शायद रास्ता भटक गए फिर नदी के किनारे किनारे कुछ दूर चलने पर गाँव मिल गया। लगभग ५ k.m. तक कोई सड़क नही मिटटी के ऊंचे नीचे टीले जहाँ साइकिल तक चला पाना सम्भव नहीं। बरसात में इस गाँव का संपर्क पूरी तरह कट जाता है। और हाँ संचार क्रांति के इस युग में यहाँ मोबाइल फोन पर कोई नेटवर्क नहीं होता। 
                  
                  गाँव में कुछ लोगों से बात हुई तो मालूम हुआ कि इस गाँव में लड़कों कि शादी होना भी एक समस्या है।  कोई भी बाहर का आदमी इस गाँव में अपनी लड़की नहीं ब्याहना चाहता। शादी डॉट कॉम के ज़माने में भी लोग यहाँ अपना जीवन साथी पाने को तरस रहे हैं। डर लगता है सोच कर कि बीमार मरीजों का क्या हाल होता होगा इलाज के लिए अस्पताल तक कि यात्रा में। यहाँ कोई अस्पताल नहीं है। 
     

                           स्वस्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से भी भारत के गाँवो की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। सरकार ने कई गांवों में सभी गाँवों में नहीं स्वास्थ केंद्र बना कर अपने कर्तव्यों कि इति श्री कर ली है। और ये स्वस्थ्य केंद्र ग्रामीणो को इलाज प्रदान करने के लिए नहीं बल्कि कुछ चुनिंदा नौकरशाहों और राजनेताओं कि कमाई का जरिया बनने के काम ज्यादा आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के स्वस्थ्य विभाग का घोटाला तो यही कहता है।  और इस स्वस्थ्य केंद्र पर डॉक्टर भी आ कर इलाज करें ये तो सपने वाली बात होगी। यहाँ कि जिम्मेदारी प्रायः एक अर्धकुशल व्यक्ति ही उठाता है। और हद तो ये थी कि कुछ दिनों पहले सरकार गाँवों कि जनता को एक अलग किस्म का अर्ध ट्रेन्ड  डॉक्टर देने वाली थी जो कि एक सामन्य mbbs डॉक्टर से कहीं घटिया क्वालिटी का होता। भला हो इंडियन मेडिकल कॉउंसिल का जिसने इसका विरोध कर दिया अन्यथा तो कृषि प्रधान और गाँवों के देश भारत को एक घटिया श्रेणी के चिकित्सक प्रदान कर दिए जाते। राजनेताओं को छींक भी आए तो विदेश जाएँ और इन्हे विदेश जाने लायक बनाने वाली ग्रामीण जनता घटिया और झोला छाप डॉक्टर से काम चलाये। 


                     शिक्षा भी कोई कम दोयम दर्जे कि नहीं है गाँवों की। महानगरों के विद्यालय जहाँ चमचमाती मोटरों से उतारते  कोट टाई पहने बच्चे जिनके लिए विद्यालय का दरवान मुस्कुराते हुए दरवाजा खोलता है तो स्वाभाविक रूप से बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ता है और दूसरी तरफ गाँव का सरकारी विद्यालय जहाँ बच्चे अपने फटे हुए बस्तों में मुफ्त में मिली किताबें जिनका कागज और छपाई कतई आकर्षक नहीं होती लेकर स्कूल आते हैं। कुछ एक तो बिना चप्पलों के ही , खुद ही झाड़ू लगते हैं विद्यालय में साफ़ सफाई करते हैं और जहाँ उनके नगरों के समवयस्क बच्चे कंप्यूटर और अन्य तकनीक द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं वे अध्यापकों के आभाव में और तकनिकी साधनो के आभाव में  पिछड़ते चले जाते हैं। और एक अकुशल मजदूर बनने की राह पर चल पड़ते हैं।  ये मत कहियेगा कि ग्रामीण विद्यालयों में भी कंप्यूटर हैं ,,,वो तो कब के पंखों समेत चोरी हो गए और थानेदार साहब ने रिपोर्ट तक नहीं लिखी। 

                        भारत को अगर सुखी समृद्ध और सम्पन्न बनाना है तो हमे सबसे पहले भारत के ग्राम और किसान को सुखी सम्पन्न और समृद्ध बनाना होगा। भारत के विकास कि नीतियों को गाँवों कि तरफ मोड़ना पड़ेगा अन्यथा हम भारत का एकांगी तथाकथित विकास करते रहेंगे।  भारत की ८०% जनता को सिर्फ कुछ लोगों के लालच और स्वार्थ के लिए पिछड़ा रखना किसी अपराध से कम नहीं है। 

        

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

क्या मास्टर जी वाकई फेल हो गए हैं?




        टीवी चेनल्स कई बार दिखाते हैं "मास्टर जी फेल हो गए" ,इस कार्यक्रम में सरकारी स्कूल के अध्यापक से सामान्य ज्ञान के कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं और अक्सर कुछ अध्यापक उनका हास्यास्पद उत्तर देते  दिखाई देते हैं।  ये और बात है कि इन कार्यक्रमो में सिर्फ उन्ही अध्यापकों कि तस्वीरें दिखाई जाती हैं जिन्होंने गलत जवाब दिए , उनके नहीं जिन्होंने अपने उत्तरों से खबरिया चेन्नल के संवाददाता को हो सकता है नि:प्रश्न   कर दिया हो।  इस बहस में न जाते हुए कि कौन सही है कौन गलत , एक अध्यापक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी बनती है कि सबसे पहले इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक विचार करें कि सरकारी  अध्यापक की इस दशा के लिए जिम्मेदार कौन है ?

,,,चयन से ही प्रारम्भ करें तो अध्यापक की भर्ती ही अक्सर विवादों से घिरी होती है।  हाई स्कूल ,,इंटरमीडिएट और स्नातक के प्राप्त अंकों के आधार पर बनी मेरिट अक्सर कुछ  अयोग्य लोगों को चयनित करवा देती है।
  ,,,सरकारी नौकरी पा लेने के बाद एक निश्चिंतता जो मन मष्तिष्क पर सवार हो जाती है वो भी कई बार ज्ञान को अपडेट करने से रोक लेती है शिक्षक को. अध्यापक भी जनता है कि अब नौकरी कि सुरक्षा कि गारंटी मिल चुकी है ,,,,लापरवाही भी उसका कुछ नहीं बिगड़ सकती क्युकि सरकारी विद्यालयों में न तथाकथित नेताओं के बच्चे पढ़ते हैं और न ही नौकरशाहो के। . जिनके पढ़ते हैं उन्हें अव्वल तो चिंता ही नहीं है कि बच्चे पढ़ भी रहे हैं  या नहीं अगर चिंता भी है तो उसके विरोध का कोई  मतलब भी है नहीं।  समाज  सम्मानित व्यक्तियों  बच्चे तो महँगी फीस वाले विद्यालय में पढ़ते हैं। ये और बात है कि इन महँगी फीस वाले निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षक सरकारी विद्यालयों में नौकरी पाने के लिए आवेदन करते हैं और कम अंक के कारण नौकरी से वंचित रह जाते हैं।  अब ऐसे में शिक्षकों की  चयन प्रणाली पर संदेह होने लगता है और सरकार है कि न जाने क्यों  चयन कि  यही प्रणाली अपनाये हुए है।तो यह तो कहा जा सकता है कि सरकारी अध्यापकों के चयन की प्रणाली फेल हुई है वो फेल हुए हैं  जिन्होंने इस चयन प्रणाली को लागू किया किया है।  मास्टर जी फेल नही हुए।
                                         अब बात करें कार्य स्थल की सरकारी स्कूल अधिकतर देहातों में ,,हैं। इनमे नक्सल प्रभावित इलाके दुर्गम इलाके और दस्यु प्रभावित इलाके भी हैं। मैं ऐसे कई अध्यापकों को जनता हूँ जिनका अपहरण हो गया था और फिरौती की एक बड़ी धनराशि देकर छूट कर आये थे। खबरिया चैनल कभी यह नहीं दिखाते कि कि ज़ी लिटेरा और दिल्ली पब्लिक स्कूल जैसे निजी विद्यालय इन देहातों और दुर्गम इलाकों में क्यों नहीं। अगर ये विद्यालय नगरों और महानगरों में सरकारी विद्यालयों कि शिक्षा के खिलाफ एक षड़यंत्र चला कर खुद को बेहतर साबित करने का प्रयास करते हैं।  कई बार सरकारी मशीनरी भी  सहयोग करती है। अगर ये बेहतर हैं तो सरकार को चाहिए था कि इन्हे किसी महानगर में अपनी शाखा प्रारम्भ होने से पहले एक शर्त इनके सामने रखी जाती कि अपनी गुणवत्ता पूर्ण सेवा प्रदान करने वाली एक शाखा ये सुदूर देहातों में भी लगाएंगे। क्युकि अगर ये बेहतर हैं तो देहाती बच्चों को भी हक़ है इनकी अच्छी सेवा लेने का पर देहातों में बिजनेस नही है। और शिक्षा को इन शिक्षा माफियाओं ने धंदा बना दिया है।
     अब सरकारी अध्यापकों के द्वारा किये जाने वाले कार्यों को भी लिया जाये। कहने को तो शिक्षा अधिकार क़ानून लागू है।  शिक्षक से अध्यापन के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं लिया जा सकता परन्तु सच्चाई इस से बिलकुल अलग है. . .,कहा तो यह भी जा सकता है कि ऐसा कोई भी कार्य  जिसे करने के लिए कई कार्मिकों कि आवश्यकता  होती है वह सारे सरकारी कार्य सरकारी  अध्यापकों से ही कराये जाते हैं।  चाहे स्वास्थ  विभाग का पोलिओ उन्मूलन कार्य क्रम हो।  या कोई सरकारी सर्वे। यहाँ तक कि कुछ गैर सरकारी संगठनो जैसे कि  शिव नाडर फाउन्डेसन का विद्या ज्ञान हो या भारत स्काउट गाइड  इनका प्रचार प्रसार भी सरकारी अध्यापक ही  करता है जिस के लिए उसे बाकायदा आदेश अपने उच्चाधिकारियों से प्राप्त होते हैं।
       अब बात की  जाए उन विद्यार्थियों की जिनके आधार पर गुरु जी को फेल  हैं मीडिआ वाले।  गाँव में अगर १०० विद्यार्थी हैं। तो उनमे से ७० जो किपढ़े   लिखे परिवारों से थे पहुँच गए निजी विद्यालयों में  उनका दाखिला  प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करने पर हुआ होगा।  उनके माता पिता को भी एक परीक्षा से गुजरना पड़ा होगा कई विद्यालयों में।  और ये माता पिता  उस बच्चे को विद्यालय द्वारा दी गयी लिस्ट के अनुसार समस्त प्रकार की अध्यन सामग्री उपलब्ध कराएँगे। दूसरी तरफ इन बच्चो से कम आई क्यू वाले बच्चे होंगे कम आई क्यू  इसलिए कह रहा हूँ क्युकि इनका आई क्यू  टेस्ट  के बिना ही दाखिला हुआ। इन बालकों के अभिभावकों के पास इतना धन नहीं कि वो इन्हे वो सारी सुविधाएँ दे पाये जो धनवानो के बालकों को प्राप्त हो रही हैं।  वहाँ स्मार्ट क्लासेस हैं.,विद्यार्थियों कि संख्या के अनुसार शिक्षक हैं और यहाँ सरकारी विद्यालयों में हो सकता है कि २०० बालकों के लिए १ ही शिक्षक हो जो स्वयं ही विद्यालय का चपरासी भी होता है सफाई कर्मी भी ,,रसोइयों से मिड डे मील बनवाने वाला मुख्य रसोइया भी ,,पूरे गाँव के बच्चों को पोलिओ कि दवा पिलाने वाला स्वस्थ कर्मी भी होता है और साथ ही उस गाँव के वोट बनाने वाला चुनाव आयोग का कर्मी भी और इन सबके बीच वह शिक्षा प्रदान करने वाला शिक्षक भी।
             क्या अब भी कहा जा सकता है कि मास्टर फेल हुआ है।  अगर फेल ही मानना है तो शिक्षकों के चयन की सरकारी प्रणाली ,,,सरकारी शिक्षा नीतियाँ ,,,,वह वातावरण जहा शिक्षक  काम करता है  को मानिये।
सरकारी मास्टर तो इन सारी  विसम परिस्थितियों में भी शिक्षा की अलख जगा रहा है उनके बीच जो शिक्षा का महत्व नहीं जानते। मास्टर कभी फेल नहीं होता।
       
      

रविवार, 1 दिसंबर 2013

मास्टर जी अख़बार में खोए
मैडम जी मोबाइल में
होरी के नाती पोता अब
पढ़त हैं केवल फाइल में


रोज सबेरे करें प्रार्थना
जंगल मंगल भारत भागा
किरहे चावल खाय रहे हैं
लिए कटोरा होय न नागा

आजादी गणतंत्र दिवस पर लडुआ
खाएं  स्टाइल में

होरी के नाती पोता अब
पढ़त हैं केवल फाइल में

लिए ककहरा खड़ा मंगरुआ
मैडम जी लेओ जाँच देओ  तुम
मैडम जी ने जड़ा तमाचा
भाग यहाँ  से उल्लू की दुम
तेरे जैसे कभी कलट्टर हुए कि  तू ही हो जाएगा '
यही करेगा मजदूरी और कर्ज़ा  लेकर
मर जाएगा

खड़ा मंगरुआ सुबक रहा
ज्यों फिलिस्तीनी ,,इज़राइल में

होरी के नाती पोता अब
पढ़त हैं केवल फाइल में।।।।।।
दोस्त मेरे 
जानता हूँ 
साथ तुम न दे सकोगे
ये सफ़र मेरा है 
और मैं ही 
इसको तय करूंगा 
चाह कर भी मैं 
बदल पाउँगा न ये रास्ता 
और तुम भी 
रख न पाओगे क़दम 
मेरे कँटीले रास्ते पर 
फिर भी 
मन ये चाहता है 
साथ दो तुम 
हाथ दो तुम 
हाथ में मेरे 
मगर मैं जानता हूँ 
दोस्त मेरे 
ये सफ़र मेरा है 
और मैं ही 
इसको तय करूंगा 
दोस्त मेरे 
साथ तुम न दे सकोगे। 
 


सोमवार, 18 नवंबर 2013

स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में महादेवी वर्मा का साहित्य 






             महादेवी का साहित्य नारी के शोषण, उसकी पीड़ा ,,,उसके बंधन और इन सबका प्रतिकार करते हुए उसकी हिम्मत और उसकी वयक्तिक क्रांति का साहित्य है .
उनका साहित्य  'स्त्री जीवन पर एक नारी लेखिका की सहानुभूति मात्र नही वरन एक गंभीर विश्लेषण भी है'

महादेवी का स्त्री विमर्ष  उनकी कविता की अपेक्षा रेखा चित्रों, संस्मरणों और निबंधों में अधिक मिलता है. डॉ सूर्य प्रकाश दिक्षित के शब्दों में" नारी  जीवन और समसामयिक जीवन बोध विषयक उनका चिंतन  जब काव्य बद्ध  न हो सका तो उन्हें गद्य का आश्रय लेना पड़ा
  महादेवी का स्त्री विमर्श उनके आलेखों युद्ध और नारी ,,आधुनिक नारी,,घर और बहार,,,स्त्री के अर्थ स्वातंत्र्य का प्रश्न ,,,,उनके संस्मरणों रेखा चित्रों और कही कही कविताओं में दिखाई पड़ता है। 

        समाज स्त्री को ,,,उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को स्वीकार नही करना चाहता ,,,पुरुषवादी समाज ये मानता है की स्त्री का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नही उसकी कोई पुकार नही,,उसका कोई होना नही स्त्री की स्थिति एक गुलाम की तरह है जो सिर्फ पुरुह के पीछे पीछे चलती है
    स्त्री शोषण का यह जाल सदियों से चला आ रहा है पुरुष स्त्री सब कुछ थोपता रहा है चाहे नियम कानून हों ,,,या रीती रिवाज यहाँ तक की स्त्री को दिए गए अधिकार भी सब कुछ उस पर थोपा  ही गया है ..
महादेवी श्रंखला की कड़ियाँ में लिखती हैं  "आदिम युग से सभ्यता के विकास तक्स्त्री सुख के साधनों  में गिनी जाती रही .......पुरुष ने उसके अधिकार अपनी सुख की तुला पर तौले उसकी विशेषता पर नही

      महादेवी की रचनाओं के स्त्री पात्र समाज द्वारा उपेक्षित व तिरष्कृत हैं चाहे वो गुंगिया हो,,,भक्तिन हो बिबिया हो या मुन्नू की माई हो या चीनी फेरे वाले की अभागिनी बहन .... ये सभी सर्व हारा हैं इनके पास इनका अपना कहने को कुछ भी नही ....न धन संपत्ति न घरबार न रूप रंग का अभिमान न मत पिता यह तक की अपना नाम भी नही और समाज द्वारा पग पग पर ये छले जा रहे हैं पग पग पर इनका शोषण हो रहा है
    चाहे गुंगिया को उसके पिता पति व पुत्र के द्वारा छले जाना हो या बिबिया की जिजीविषा के दम तोड़ देने की कहानी भक्तिन की कथा हो या मुन्नू की मई की सब तरफ समाज का एक स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यव्हार ही दिखाई पड़ता है

     महादेवी का साहित्य " इस शोषक समाज में संवेदनशील व्यक्ति की तथा एक नारी की वेदना है ,,,,महादेवी के संस्मरणों में नारी की मूक पीड़ा को प्रखर अभिव्यक्ति मिली है उन्होंने नारी की वेदना उसकी उसकी आकुल छात्पताहत उसकी पराधीनता को शब्द बढ करते हुए उसकी गरिमा को रेखांकित किया है

       चीनी फेरीवाला  में वैश्या जीवन की त्रासदी के संकेत मिलते हैं इस जीवन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए वे लिखती हैं " यदि स्त्री की ओर देखा जाए तो देखने वाले का ह्रदय काँप उठेगा ....उसके ह्रदय में प्यास है परन्तु उसे भाग्य ने मृग मरीचिका में निर्वासित कर दिया है…उसे जिंदगी भर सौंदर्य की हट लगनी पड़ी ,, अपनी ह्रदय की समष्ट कोमल भावनाओं को कुचल कर आत्म समर्पण की साडी इच्छाओं को गला घोंट कर रूप का क्रय विक्रय करना पड़ा और परिणाम में उसके हाथ आया निराश हताश और एकाकी अंत
   नारी के सामने एक बहुत जटिल समस्या रही है आर्थिक स्वतंत्रता की और जब तक स्त्रियाँ अर्थी रूप से स्वतंत्र नहीं है ,,,जब तक उनकी कोई अर्थगत ,,सम्पत्तिगत स्थिति नहीं है तब तक स्त्रियों की समानता और उनके अधिकारों की बात सिर्फ निठाल्ला चिंतन ही है
     महादेवी लिखती हैं स्त्री के जीवन की अनेक विवशताओं में प्रधान और कदाचित उसे सबसे अधिक जड़ बनाने वाली अर्थ से सम्बन्ध रखती है और रखती रहेगी
              समाज ने स्त्री को घर के भीतर बंद कर दिया है उसे आर्थिक रूप से पंगु कर दिया है
महादेवी लिखती हैं पुरुष ने स्त्री को घर में प्रतिष्टित कर उसे जड़ता सिखाने का प्रयत्न किया है
उन का मानना  है " जिन स्त्रियों की पाप गाथाओं से समाज का जीवन कला है जिनकी लज्जा हीनता से जीवन लज्जित है नमे अधिकांस की दुर्दशा का कारण अर्थ की विषमता ही मिलेगी

  महादेवी  का साहित्य सिर्फ नारी वेदना का ही साहित्य नही , दुःख और करुणा  का ही साहित्य नही है  वे औरत की एक जगह समाज मेंबनाती  हैं ,,उस औरत की जो समाज में नितांत उपेक्षित है यह जगह करुनामय तो है पर करूँ नही दया की पात्र नहीं ,,निरीह नही

     महादेवी का साहित्य केवल करुन और दुःख का ही साहित्य नही है यह नारी क्रांति का भी साहित्य है यह सिर्फ विद्रोह भर नही है ,,,,विद्रोह सिर्फ पुराने व्यक्तित्व को  है और क्रांति है नए की सृष्टि 
    महादेवी की स्त्रियाँ स्वाभिमानी हैं और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी ,,,,उनके व्यक्तित्व में करुन और क्रांति गुंथी हुई है ,,,महादेवी  ने लिखा है "स्त्री के व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति
के साथ साहस तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य होना आवश्यक है  जिस से  ह्रदय के सहज स्नेह की वर्षा करते हुए हुए भी वह किसी अन्याय को प्रश्रय न दे कर अपने प्रतिकार में तत्पर रह सके

    बिबिया के स्वाभिमान पर जब चोट पड़ती है तब वह पति पर चिंता उठा कर फेक देती है और इस चिमटे के प्रहार का स्मरण ही रमई कोहिम्मत नहीं दे पता की वह बिबिया को जुए के दांव पर रख सके
     बी इबिया स्पष्ट घोसणा  करती है वह कोई गाय बछिया नही है की उसे कसाई  के हाथों बेंच दिया जाए या दान कर दिया जाए

मुन्नू की मई को हम समाज की रुढियों को तोड़ कर अपनी और अपने परिवार की रक्षा के लिए मजदूरी करते हुए पाते  हैं
भक्तिन समाज के किसी बहकावे में आने वाली नहीं है उसे अपने भले बुरे की पहचान है और वह अपनी बेहतरी के लिए प्रयास रत भी है
महादेवी के अनुसार ऐसे ही देशव्यापी आन्दोलन की जरुरत है जो सबको सजग कर दे
    महादेवी के स्त्री विमर्श की सबसे खास बात है की वह स्त्री और पुरुष को काट कर अलग नही करती और स्त्री स्वतंत्रता को सिर्फ दैहिक स्वतंत्रता तक ही सिमित नहीं करती ,,,,डॉ राजेंद्र गौतम के अनुसार ' महादेवी ने स्त्री के हक के लिए जो आवाज उठाई है उसमे दृढ़ता तो है ,,,जड़ संस्कारों पर चोट भी है  पर उनका स्त्री विमर्श पुरुष द्वेषी नहीं है ..उसमे ग्रीन का स्थान नहीं है ,,,उद्दाम भोग की मांग नहीं है अर्थात नारी की देहवादी परिभाषा उन्हें स्वीकार नहीं है

      महादेवी की नारी पुरुष होने की दौड़ में  नहीं है वह अपने व्यक्तित्व  की स्वीकृति चाहती है और यह स्वीकृति वह किसी से दान में नहीं चाहती बल्कि हासिल करना  चाहती है ,,,इसे हासिल करने की प्रक्रिया से गुजरना हहती है ,,,और इसमें जो संघर्ष है उससे वह पूरी आस्था और निष्ठां से संघर्षरत है
   महादेवी का नारी विमर्श एक नारा नही है यह नारी की समस्याओं से रूबरू होने उनसे जूझने और जूझते हुए समाधानों को निकलने के प्रयास की ओर संकेत करता है

महादेवी की नारी संघर्ष शील है ,,,वह अपनी पीड़ा दुःख और दमन से टूटी नहीं है वह इन सभी के बीच न सिर्फ पूरी जीवन्तता से जी रही है बल्कि इस शोषण और दमन से मुक्ति का मार्ग अपने दम पर ढूंढ रही है ---------------राम जनम 

शनिवार, 16 नवंबर 2013

भारत प्राचीन काल से  सम्पूर्ण विश्व को अच्छी शिक्षा उपलब्ध  कराने वाला देश रहा है।  तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला से लेकर मठो मंदिरो कि एक लम्बी श्रंखला है जहाँ  अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध थी।
और देश विदेश से तमाम शिक्षार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण   करने   आते रहे हैं। भारत के सभी शाशको ने शिक्षा को सम्मान का स्थान दिया। ग़ुलामी के लम्बे कालखंड को झेलने के बाद जब भारत आज़ाद हुआ तो संविधान में समाज के सभी वर्गों को बिना किसी भेद भाव के सभी को सामान अवसर उपलब्ध करते हुए शिक्षा प्राप्त करने कि व्यवस्था कि गयी।
              आज़ादी के ६६ सालों के बाद जब हैम भारत में  शिक्षा व्यवस्था पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि इस क्षेत्र में सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन कुछ इस तरह हुआ है कि हर वर्ग के लिए अलग तरह कि शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है। अमीर आदमी के बच्चों के लिए अलग विद्यालय हैं और गरीब बच्चों के लिए अलग। न इनमे किताबों कि एक रूपता है और न ही इन विद्यालयों कि सुविधाओं में कोई मेल  .
एक तरफ जहाँ' स्मार्ट  क्लास्सेस 'का प्रचलन पुराना पड़  गया है वहीँ दूसरी तरफ टाट पर बैठे सर्दियों में कांपते हुए बच्चे हैं। और मालूम पड़ता है कि भारत कि शिक्षा व्यवस्था को पूंजीवादी बाज़ार व्यवस्था के हाथों में सौंप दिया गया है। शिक्षा और शिक्षा से सम्बंधित नीतियां पूरी तरह से बाज़ार के मुनाफे को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं.
मेरे  कुछ मित्र कहते हैं कि सरकार ने सभी को अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार क़ानून बनाया है।
             भारत सरकार  ने शिक्षा का अधिकार क़ानून बनाया और व्यवस्था की   कि ६ से १४ वर्ष के बच्चे कोनिशुल्क  अनिवार्य और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराई जाए।  अब पहली बात तो ये कि यह शिक्षा निशुल्क है मुफ्त नहीं अर्थात शिक्षण शुल्क नहीं लिया जाएगा बाकी  का शुल्क जैसे शिक्षण प्रक्रिया में काम  आने वाली वे वस्तुए जिन्हे बच्चे प्रयोग में लायेंगे यथा  कलम कापी आदि ये व्यवस्था बच्चा स्वयं करेगा। सरकार  यूनिफार्म मुफ्त बाँट रही है पर उसकी कीमत वो रखी गयी है जिससे कहीं ज्यादा में वे लोग अपने लिए अंडरवियर खरीदते हैं जिन्होंने ये बजट बनाया है। ये सिर्फ कमीज और पतलून दे रहे हैं बाकि के जूते मोज़े ,बेल्ट टाई स्वेटर वगैरह कि व्यवस्था बालक को स्वयं करनी है.जो समाज का एक तबका जुटाने में स्वयं को सर्वथा अक्षम पाता है।
दूसरी तरफ कुछ बच्चे जिनके माता पिता आर्थिक रूप से समृद्ध हैं और महँगी फीस वाले किसी निजी स्कूल में ये बच्चे लक  दक यूनिफार्म और चमचमाते जूतों के साथ  प्रवेश करते हैं। . शिक्षा प्राप्त करने कि ये दो व्यवस्थाएं जहाँ एक तरफ कुछ बालको को अहंकारी दम्भी समाज से कटा हुआ बनती हैं वहीँ दूसरी तरफ कुछ बालको को हीन  भावना का शिकार बनती है और कुछ को समाज से विद्रोही।

दूसरी बात इस क़ानून कि ये है कियह क़ानून सिर्फ कक्षा ८ तक की पढाई कि अनिवार्यता कि बात करता है परन्तु आज के सन्दर्भ में इसे देखे तो कक्षा ८ की गुणवत्ता पूर्ण पढाई के बाद किसी भी गुणवत्ता पूर्ण व्यवसायिक कोर्स के दरवाजे नहीं खुलते न तो मेडिकल न ही इंजीनियरिंग और न ही प्रबंधन अब इस अनिवार्य गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का अर्थ ही क्या बचा।
                  क्या सरकारें सिर्फ अप्रशिक्षित अकुशल मजदूर ही बनाना  चाहती है समाज के वंचित वर्ग के बच्चों को
ये कैसी व्यवस्था है जहाँ धनवानो के बच्चे तरक्की कि सीढियाँ चढ़ते जाएं और गरीब किसान और मजदूरों के बच्चे एक गहरे षड़यंत्र के तहत सिर्फ अकुशल और खेतिहर मजदूर बन पाने के मकड़जाल से बाहर ही न  सकें।
     एक ही देश के बच्चे के लिए अलग अलग प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्थाये , अलग अलग पाठ्यक्रम ,,अलग अलग किताबें और अलग भाषाई व्यवस्था ,,,भारतीय संविधान को मुह चिढ़ाती नज़र आती हैं। और आवश्यकता नजर आती है एक जन आंदोलन कि जो शिक्षा कि इन विषमताओं को दूर कर सके तभी हम स्वयं को भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र के निवासी कहलाने में गर्व का अनुभव कर सकेंगे

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

है मेरा ख्वाब तेरे साथ एक शाम गुज़रे
 
यूँ तो कट ही रही है ज़िन्दगी
लेकिन है ख़ाली ख़ाली सी
 उदास सुबहें हैं मेरी ओ सुस्त शामें हैं
नहीं है फिक्र कोई और न कोई
 आरजू ही
 नहीं है आस भी कोई की रंग उतरेंगे
खिलेंगे फूल कलि चट्केगी , आयेगी बहार
हवा हँसेगी चमन महकेंगे
 मगर अब चाहता हूँ सुबहें गीत गा ही उठें
झूम उठे ये समंदर ओ फूल भी महकें
उठा के हाथ ये कहता हूँ खुदा से की कर क़ुबूल दुआ
मेरे होतीं से अब तेरे लबों का जम गुज़रे

है मेरा ख्वाब तेरे साथ एक शाम गुज़रे

शनिवार, 9 नवंबर 2013

एक रंग था ,,एक जोश था 

एक रंग था
एक  जोश था
दीवानगी थी जूनून था
सब टूटता सा है जा  रहा
सब छूटता सा है जा रहा
बस धुआं धुआं सी है ज़िन्दगी
बड़ी उलझी उलझी रुकी रुकी

जिन आँखों में कभी आग थी
वो बुझी बुझी हैं झुकी झुकी
वो तनी  सी मुट्ठियाँ
कभी दौड़ती थीं जो बिजलियाँ
कही खो गयी

चुप हो गयी आवाज़ वो
जिनमे बला की आग थी
जिसमे था इतना हौसला
कि आशमा दहशत में था
है अब वो खुद दहशतजदा

ये क्या हुआ

एक रंग था
एक  जोश था
दीवानगी थी जूनून था

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013



ज़िन्दगी की धूप जब जब मुझे झुलसाने लगती है
मैं तुम्हारे कंधे पे सर रख कर 
थोडा सुस्ता  लेता हूँ 
तुम्हारी नर्म उंगलिया 
सुलझाती हैं मेरे उलझे हुए केश
तुम्हारी आँखों में लहरा उठता है एक समुद्र 
एक कलि की तरह चटकती है तुम्हारे होठों से
 एक श्वेत चंचल मुस्कराहट
फूट पड़ता है झरना 
हवाओं में सुगंध भर जाती हैगाल  सुर्ख हो जाते हैं तुम्हारे
समय भी गुलाबी हो जाता है

बुधवार, 6 नवंबर 2013

गुनगुनी सी मखमली सी
याद  तेरी
छेड़ जाती है
अकेले में कभी
तो रात भर फिर जागता हूँ

सोचता हूँ मैं तुम्हे क्या याद हूँगा
साथ जो लम्हे बिताये
वो तुम्हे क्या याद होंगे

याद होगी क्या तुम्हे मेरी वो पहली प्रेम पाती
शाम की वो मस्तियाँ सुबहों के वो मीठे तराने याद होंगे

याद होगा क्या तुम्हे
कंधे से मेरे सिर टिकाना
रूठना और मान जाना
मुस्करा कर फिर मुझे ग़ालिब की वो ग़ज़लें सुनाना
याद होगा

सोचता हूँ रात भर और जागता हूँ


गुनगुनी सी मखमली सी
याद  तेरी
छेड़ जाती है
अकेले में कभी
तो रात भर फिर जागता हूँ

सोमवार, 4 नवंबर 2013



तुम्हारी उत्तप्त सांसों का ज्वार
जब जब टकराता है 
मेरी कनपटी से
मैं उन्मत्त हो 
पी जाना चाहता हूँ
सारा समुद्र
रोंद डालना चाहता हूँ
समूची पृथ्वी
मसल देना चाहता हूँ
चाँद और सूरज
जकड़ लेता हूँ तुम्हे 
बाँहों के मजबूत घेरे में
और तुम भी समां जाती हो 
मुझमे
सारी सृष्टि समेटे हुए
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रविवार, 27 अक्तूबर 2013

बंजारों सा चलता  जीवन 


बंजारों सा चलता  जीवन
कितने ठौर बदलता जीवन
धुप छाँव   और ऊंच नीच में
चलते चलते ढलता जीवन

गठरी लादे  थके से कंधे
चाहें  दो पल को सुस्ताना
धूल में लिपटे पैर भी ढूंढे
रुक जाने का एक बहाना
आँखों में धुन्धलाये सपने
खाली हाथ को मलता  जीवन
 कितने ठौर  बदलता जीवन

कौन मिला किस से क्या पाया
जोड़ रहा क्या रत्ती पाई
क्या होगा सब जोड़ घटा कर
दुनिया कब किसकी हो पाई
पल में तोला पल में मासा
प्रति पल रंग बदलता जीवन

बंजारों सा चलता  जीवन
बंजारों सा चलता  जीवन


शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

मन बावरा



मन बावरा
सपने बुने
माने न किसी का कहा
कुछ ना सुने

सपने सुनहरे भोले
छूता जिन्हें ये हौले
कानो में मिश्री घोले 
जिनकी हंसी

बारिश की रिमझिम इनमे
गीतों की सरगम इनमे
इनमे रुपहली सी एक 
दुनिया बसी

निंदिया की गोदी में छुप
लोरी सुने
मन बावरा
सपने बुने